होली पिया बिण म्हाणे णा भावाँ
होली पिया बिण म्हाणे णा भावाँ
होली पिया बिण म्हाणे णा भावाँ घर आँगणां णा सुहावाँ।।टेक।।
दीपाँ चोक पुरावाँ हेली, पिया परदेस सजावाँ।
सूनी सेजाँ व्याल बुझायाँ जागा रेण बितावाँ।
नींद णेणा णा आवाँ।
कब री ठाढ़ी म्हा मग जोवाँ निसदिन बिरह जगावाँ।
क्यासूं मणरी बिथा बतावाँ, हिवड़ो रहा अकुलावाँ।
पिया कब दरस दखावां।
दीखा णां कोई परम सनेही, म्हारो संदेसाँ लावाँ।
वा बिरियां कब कोसी म्हारी हँस पिय कंठ लगावाँ।
मीराँ होली गावाँ।।
दीपाँ चोक पुरावाँ हेली, पिया परदेस सजावाँ।
सूनी सेजाँ व्याल बुझायाँ जागा रेण बितावाँ।
नींद णेणा णा आवाँ।
कब री ठाढ़ी म्हा मग जोवाँ निसदिन बिरह जगावाँ।
क्यासूं मणरी बिथा बतावाँ, हिवड़ो रहा अकुलावाँ।
पिया कब दरस दखावां।
दीखा णां कोई परम सनेही, म्हारो संदेसाँ लावाँ।
वा बिरियां कब कोसी म्हारी हँस पिय कंठ लगावाँ।
मीराँ होली गावाँ।।
(भावाँ=अच्छा लगना, हेली=सखी, व्याल=साँप, मणरी=मन की, बिथा=व्यथा, बिरियां=अवसर)
मीराँबाई का यह पद उनके प्रियतम श्री कृष्ण के प्रति गहरी विरह की भावना को व्यक्त करता है। पद में मीराँबाई अपने प्रियतम के बिना अपने घर और आँगन को सुहावना नहीं पातीं। वे दीपों से सजाए गए घर, सूनी बिछावन, और व्याल (साँप) से भरी रातों का वर्णन करती हैं, जो उनके प्रियतम की अनुपस्थिति में व्यर्थ और भयावह प्रतीत होती हैं। नींद की कमी और विरह की पीड़ा उनके हृदय को व्याकुल करती है। वे अपने प्रियतम के दर्शन की प्रतीक्षा करती हैं, और उनके बिना जीवन को निरर्थक मानती हैं। पद के अंत में, मीराँबाई अपने प्रियतम के बिना होली के आनंद को अधूरा मानती हैं और उनके साथ होली खेलने की इच्छा व्यक्त करती हैं।
सुंदर भजन में प्रेम और विरह की अनुभूति गहराई से उद्गारित होती है। जब प्रियतम दूर होता है, तब जीवन की प्रत्येक खुशी और उत्सव निरर्थक प्रतीत होते हैं। घर, आँगन, दीप—all अपनी आभा खो देते हैं, क्योंकि प्रिय की अनुपस्थिति मन को असहज और असहाय बना देती है।
प्रेम की सच्ची भावना प्रतीक्षा और आत्मसमर्पण में निहित होती है। वह रातें, जो पहले सुखद सपनों से भरी थीं, अब जागरण और तड़प में बीतती हैं। जब नींद आँखों से दूर होती है, तब मन की बेचैनी बढ़ जाती है, और विरह का बोझ और भी गहराता जाता है।
यह उद्गार दर्शाता है कि प्रेम केवल बाहरी संबंध नहीं, बल्कि आत्मा का गहन अनुभव है। यह प्रतीक्षा केवल किसी बाहरी मिलन की नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक संयोग की प्रतीक्षा है, जहाँ आत्मा अपने प्रियतम के दर्शन की कामना में व्याकुल रहती है।
जब प्रेम सच्चा होता है, तब उसकी तड़प भी मधुर होती है। यह केवल व्यथा नहीं, बल्कि आत्मा की गहन लालसा है, जो मिलन की अभिलाषा में निरंतर जाग्रत रहती है। जब प्रियतम अंततः दर्शन देता है, तब समस्त वेदना जैसे बह जाती है, और जीवन एक नए उल्लास से भर उठता है। यही प्रेम का वास्तविक स्वरूप है—त्याग, प्रतीक्षा और अनंत अनुराग।