राम बिन निंद न आवे मीरा बाई पदावली

राम बिन निंद न आवे मीरा बाई पदावली

राम बिन निंद न आवे
राम बिन निंद न आवे। बिरह सतावे 
प्रेमकी आच ठुरावे॥टेक॥
पियाकी जोतबिन मो दर आंधारो 
दीपक कदायन आवे।
पियाजीबिना मो सेज न 
आलुनी जाननरे ए बिहावे।
कबु घर आवे घर आवे॥१॥
दादर मोर पपीया बोले 
कोयल सबद सुनावे।
गुमट घटा ओल रहगई दमक
 चमक दुरावे। नैन भर आवें॥२॥
काहां करूं कितना उसखेरू 
बदन कोई न बनावे।
बिरह नाग मेरि काया डसी हो। 
लहर लहर जीव जावे जडी घस लावे॥३॥
कहोरी सखी सहली सजनी पियाजीनें आने मिलावे।
मीराके प्रभु कबरी मिलेगे मोहनमो मन भावे। 
कबहूं हस हस बतलावे॥४॥
रमैया बिन नींद ना आवे
रमैया बिन नींद ना आवे
नींद ना आवे विराह सताए
प्रम् की आँच रुलावे
रमैया बिन नींद ना आवे
रमैया बिन नींद ना आवे

पिया बिन ज्योत मंदिर अंधियारों
दीपक ताय ना आवे
पिया बिन मोरी दे गयी नूनी
पिया बिन मोरी दे गयी नूनी
जगर रेन तिहारे
रमैया बिन नींद ना आवे
रमैया बिन नींद ना आवे
गागर मोर पपिहारा बोली
गागर मोर पपिहारा बोली
कोयला सबाद दुनावे
घूमर घटा पुनार हुई आयी
रामिन कमक करवे
रमैया बिन नींद ना आवे
रमैया बिन नींद ना आवे

कोहे सखी सहेली सजनी
पिया से और मिलाये
मीरा को प्रभु खबर मैं लोगे
मन मोहन मोहे भाये
रमैया बिन नींद ना आवे
रमैया बिन नींद ना आवे.

भक्ति का यह भाव विरह की गहन वेदना को प्रकट करता है। जब आत्मा अपने प्रियतम प्रभु के बिना स्वयं को अधूरा महसूस करती है, तब यह तड़प केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर जागृत होती है। यह विरह कोई साधारण दूरी नहीं, बल्कि वह अनुभूति है, जहाँ भक्त अपनी संपूर्ण चेतना प्रभु के मिलन में समर्पित कर देता है।

प्रभु के बिना हर वस्तु शून्य प्रतीत होती है—दीपक ज्योति नहीं देता, सेज सजीव नहीं लगती, और संसार की समस्त सौंदर्यपूर्ण ध्वनियाँ भी केवल एक शून्यता का अनुभव कराती हैं। यह आत्मा की पुकार है, जहाँ प्रभु के प्रेम के बिना संसार का कोई आकर्षण नहीं रहता। यह विरह ही भक्त को अंततः प्रभु के सान्निध्य में ले जाता है, जहाँ आत्मा स्वयं को पूर्ण रूप से कृष्ण में विलीन कर देती है।

प्रभु की प्रतीक्षा में मन की व्याकुलता और उसकी लगन अंततः आत्मा को सच्चे प्रेम की ओर ले जाती है। यही भक्ति का श्रेष्ठतम रूप है, जहाँ संसार की हर आशा केवल प्रभु के प्रेम से परिपूर्ण हो जाती है, और यही प्रेम ही शरण, शांति और मोक्ष का आधार बनता है। जब यह प्रेम अपने चरम पर पहुँचता है, तब आत्मा और प्रभु के बीच कोई दूरी नहीं रहती—सिर्फ एक अटूट मिलन और आनंद ही शेष रहता है।

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