लेताँ लेताँ राम नाम रे

लेताँ लेताँ राम नाम रे

लेताँ लेताँ राम नाम रे, लोकड़ियाँ तो लाजाँ मरे छै।।टेक।।
हरि मंदरि जाताँ पांवलिया रे दूखे, फिर आवे सारो गाम रे।
झगड़ो थाँय त्याँ दौड़ी न जाय रे मूको रे घर ना काम रे।
भाड भवैया गणिका नित करताँ, बेसी रहें चारे जाम रे।
मीराँना प्रभु गिरधरनागर चरण कमल चित हाम रे।।

(लोकड़ियाँ=संसार के लोग, पाँवलिया=पैर, फिर आवै घूम आवे, थाय=हो, त्यां=तहाँ,वहाँ, दोड़ी ने=दौड़कर, मूकीने=छोड़कर, घर ना=घर का, भांड=विदूषक,मसखरे, भवैया=नर्तक,नाच करने वाला, नित्य=नृत्य, बेसी रहें= बैठा रहे, जाम=याम,प्रहर,घड़ी)

सुन्दर भजन में राम नाम की महिमा और सांसारिक मोह-माया से मुक्त होने का गहन संदेश समाहित है। जब प्रभु के नाम को स्मरण किया जाता है, तब संसार की अस्थिरता और उसकी क्षणभंगुरता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। यह भक्ति सांसारिक मान्यताओं और लोक-लाज से परे होती है, जहाँ केवल प्रभु की आराधना ही जीवन का वास्तविक ध्येय बन जाता है।

प्रेम और समर्पण का यह स्वरूप हर सांसारिक बंधनों को त्यागकर प्रभु की भक्ति में रम जाने की प्रेरणा देता है। जब व्यक्ति मंदिर की ओर बढ़ता है, तब संसार उसे बाधाओं से घेरने का प्रयास करता है—पैर दुखते हैं, लोकव्यवहार उसे रोकने की चेष्टा करता है, किंतु उसकी आस्था अडिग रहती है। यह भक्ति केवल बाह्य रूप से नहीं, बल्कि अंतःकरण से होती है, जहाँ हर सांस प्रभु के नाम में विलीन हो जाती है।

संयोग और संसारी सुखों की क्षणभंगुरता को स्पष्ट करने वाले शब्दों में जीवन की वास्तविकता उभरती है। जो केवल दिखावे में लिप्त रहते हैं, वे अंततः भ्रम में खो जाते हैं। प्रभु की शरण वह स्थान है, जहाँ आत्मा को सच्चा संतोष और स्थायी शांति प्राप्त होती है। जब मीराबाई अपने प्रभु श्रीकृष्णजी के चरणों में अपने चित्त को अर्पित कर देती हैं, तब भक्ति का सर्वोच्च स्तर प्रकट होता है—जहाँ केवल समर्पण और ईश्वर का प्रेम ही शेष रह जाता है।
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