सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुलहनिया भजन

सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुलहनिया कृष्णा भजन

सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुलहनिया
मैं बनूँगी दुलहनिया मैं बनूँगी सजनिया
मुरली वाले श्याम की मैं बनूँगी दुलहनीया

मेरो तो गिरधर गोपाल
दुसरो ना कोयी
जाके सर है मोर पखा
मोरे पति सोई

ऐसो वर को क्या वरु
जो जन्मे और मर जाये
वर वरियो तो सांवरे को
जो जनम सफल होई जाए

सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुलहनिया
मैं बनूँगी दुलहनिया मैं बनूँगी सजनिया
मुरली वाले श्याम की मैं बनूँगी दुलहनीया

साज श्रृंगार बंधी पग घूंघर
लोक लाज ताज नाची
मैं तो सावरे के रंग रांची

सांवरे के नाम की मेहंदी रचाऊँगी
वो मेरे होंगे मैं उनकी हो जाउंगी
श्याम रंग की मैं तो ओढूँगी ओढनिया
सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुलहनिया

भगत देख राजी हुयी जगत देख रोई
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोहे

श्याम भगत मेरे बनेंगे बाराती
बाजेगी सहनाई आये घोड़े और बाराती
पहली बार ऐसी जोड़ी देखिगी ये दुनिया
सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुल्हनिया

गिरधर मेरो साचो प्रियतम
देखत रूप लुभावो
मैं तो गिरधर के घर जाऊ

बन के सुहागन ब्रज मैं जाउंगी
सांवरे की सेवा में जनम बिताउंगी
श्याम तेरे धुन में मैं बानी रे जोगणिया
सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुल्हनिया

श्याम नाम को चूड़ो पहिरो
प्रेम को सुरमो साज
नख बेसन हरी नाम की
उतर चलो नी परली पार

फेरे होंगे सांवरे से जनम जनम के
बनवारी रात दिन राहु बन थान के
देख देख जलेगी ये सौतन मुरलिया
सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुल्हनिया

सांवरे साजन की मैं बनूँगी दुलहनिया
मैं बनूँगी दुलहनिया मैं बनूँगी सजनिया
मुरली वाले श्याम की मैं बनूँगी दुलहनीया

यह सुन्दर भजन परम प्रेम और भक्ति का दिव्य संदेश देता है। श्रीकृष्णजी के प्रति आत्मसमर्पण की भावना हर सांस में व्याप्त होती है, जहाँ सांसारिक मोह-माया का त्याग कर भक्त केवल अपने आराध्य के साथ जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेता है।

श्रृंगार और साधना का यह अद्भुत संयोग दर्शाता है कि भक्ति केवल मन और आत्मा का विषय नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू में प्रभु की उपस्थिति को समर्पित करने की प्रक्रिया है। लोक-लाज और सांसारिक मान्यताओं से परे, जब भक्त श्रीकृष्णजी को अपना प्रियतम स्वीकार करता है, तब प्रेम की पराकाष्ठा साकार हो जाती है।

मीराबाई के भाव में संपूर्ण समर्पण और निष्ठा प्रकट होती है। गिरिधर को ही अपना प्रियतम मानना सांसारिक संबंधों से परे उस आध्यात्मिक मिलन की अनुभूति है, जहाँ आत्मा केवल परमात्मा से ही जुड़ती है। यह प्रेम सांसारिक सीमाओं से मुक्त होकर अनंत सत्य की ओर बढ़ता है।

भक्ति की इस गहराई में जन्म-जन्मांतर के फेरे केवल विवाह का प्रतीक नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन की दिव्यता का संकेत हैं। जब मनुष्य प्रेम की इस गहराई को समझता है, तब सांसारिक इच्छाएँ स्वतः विलीन हो जाती हैं, और केवल श्रीकृष्णजी का प्रेम ही जीवन का अंतिम सत्य बन जाता है।

Next Post Previous Post