हृदय तुमकी करवायो

हृदय तुमकी करवायो

हृदय तुमकी करवायो। हूं आलबेली बेल रही कान्हा॥१॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे। मुरली क्यौं बजावे कान्हा॥२॥
ब्रिंदाबनमों कुंजगलनमों। गड उनकी चरन धुलाई॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। घर घर लेऊं बलाई॥४॥

इस सुंदर भजन में प्रेम की गहराई और उसकी पीड़ा का गहन भाव प्रदर्शित होता है। जब आत्मा ईश्वर की भक्ति में डूब जाती है, तब वह समस्त संसार से अलग होकर केवल प्रभु की आराधना में ही आनंद का अनुभव करती है। परंतु इस प्रेम का मार्ग सरल नहीं है—यह त्याग, तपस्या और परीक्षा से भरा हुआ है।

यह भाव आत्मा की पुकार को दर्शाता है, जहां वह प्रभु श्रीकृष्णजी से पूछती है कि प्रेम में क्यों पीड़ा का अनुभव होता है। भक्ति की यह अवस्था आत्मा को गहन introspection में ले जाती है, जहां भक्त को अपने प्रेम की सच्चाई और इसकी कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। श्रीकृष्णजी के प्रति अटूट प्रेम के कारण वह संसार के बंधनों से मुक्त होने की आकांक्षा रखती है।

गोकुल को छोड़कर मथुरा जाने की बात भी प्रेम और भक्ति की कठिन राह को दर्शाती है। सांसारिक मोह और आध्यात्मिक प्रेम के बीच संतुलन स्थापित करना साधक के लिए कठिन होता है, परंतु जब मन श्रद्धा और समर्पण से भर जाता है, तब उसका मार्ग स्पष्ट हो जाता है। यही भाव भक्ति की उस अवस्था को प्रदर्शित करता है, जहां प्रेम में न केवल सुख होता है, बल्कि कठोर परीक्षा भी होती है।

यह भक्ति की सबसे ऊंची अवस्था को दर्शाता है—जहां केवल श्रीकृष्णजी के आशीर्वाद की कामना रह जाती है। आत्मा उनके चरणों में स्वयं को समर्पित करके परम आनंद और मुक्ति का अनुभव करती है। यही वह अनुभूति है, जिसमें प्रेम, समर्पण और भक्ति की सच्ची गहराई प्रतिफलित होती है। यह भाव दर्शाता है कि सच्चे प्रेम और भक्ति में कठिनाइयाँ तो आती हैं, परंतु अंततः वह आत्मा को परमात्मा से जोड़कर उसे शाश्वत सुख और शांति प्रदान करता है।

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