हमे कैशी घोर उतारो मीरा
हमे कैशी घोर उतारो मीरा भजन
हमे कैशी घोर उतारो। द्रग आंजन सबही धोडावे।
माथे तिलक बनावे पेहरो चोलावे॥१॥
हमारो कह्यो सुनो बिष लाग्यो। उनके जाय भवन रस चाख्यो।
उवासे हिलमिल रहना हासना बोलना॥२॥
जमुनाके तट धेनु चरावे। बन्सीमें कछु आचरज गावे।
मीठी राग सुनावे बोले बोलना॥३॥
हामारी प्रीत तुम संग लागी। लोकलाज कुलकी सब त्यागी।
मीराके प्रभु गिरिधारी बन बन डोलना॥४॥
माथे तिलक बनावे पेहरो चोलावे॥१॥
हमारो कह्यो सुनो बिष लाग्यो। उनके जाय भवन रस चाख्यो।
उवासे हिलमिल रहना हासना बोलना॥२॥
जमुनाके तट धेनु चरावे। बन्सीमें कछु आचरज गावे।
मीठी राग सुनावे बोले बोलना॥३॥
हामारी प्रीत तुम संग लागी। लोकलाज कुलकी सब त्यागी।
मीराके प्रभु गिरिधारी बन बन डोलना॥४॥
जब आत्मा अपने आराध्य प्रभु श्रीकृष्णजी के प्रेम में पूरी तरह समर्पित हो जाती है, तब सांसारिक बंधनों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह भाव प्रेम की परिपूर्णता को दर्शाता है, जहां भक्त अपने इष्ट के प्रेम में हर मोह-माया को त्यागकर केवल उनकी आराधना में लीन हो जाता है।
भक्ति का यह स्वरूप आत्मा को अलौकिक आनंद और दिव्यता से भर देता है। श्रीकृष्णजी की लीला और उनकी वंशी की मधुर ध्वनि भक्त के हृदय में प्रेम और श्रद्धा का संचार करती है। यह संकेत करता है कि जब मन ईश्वर के प्रेम में रम जाता है, तब बाहरी संसार की चिंता और लोकलाज कोई प्रभाव नहीं डालती।
श्रीकृष्णजी के संग प्रेम का यह प्रवाह भक्त के भीतर सच्ची अनुभूति जागृत करता है। जब भक्त अपने प्रियतम से एकाकार हो जाता है, तब उसका समर्पण संपूर्ण और अचल हो जाता है। यह भजन आत्मा की पुकार और प्रभु से मिलन की गहरी लालसा को प्रदर्शित करता है। यही वह भक्ति की अवस्था है, जहां प्रेम, समर्पण और ईश्वरीय आनंद एक साथ अनुभव किए जाते हैं, और मन केवल प्रभु के चरणों में लीन रहने की आकांक्षा करता है। यह अनुभूति संपूर्ण रूप से आत्मा को शुद्ध करती है और उसे श्रीकृष्णजी के प्रेमरस में सराबोर कर देती है।