हरि गुन गावत नाचूंगी

हरि गुन गावत नाचूंगी

हरि गुन गावत नाचूंगी हरि गुन गावत नाचूंगी॥टेक॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥


जब आत्मा प्रभु श्रीकृष्णजी के गुणों का गायन करती है, तब उसका मन निर्मल होकर ईश्वर के प्रेम में नृत्य करने लगता है। यह भाव ईश्वर की आराधना को सहज और मधुर बनाता है, जहां भजन और भक्ति ही जीवन की वास्तविक अभिव्यक्ति बन जाती है।

भक्त जब ईश्वर के चरणों में बैठकर गीता और भागवत का अध्ययन करता है, तो उसे दिव्य ज्ञान और भक्ति का संगम प्राप्त होता है। यह अनुभूति न केवल आत्मा को शुद्ध करती है, बल्कि उसे ईश्वरीय प्रेम की मिठास का अनुभव भी कराती है। यह संकेत करता है कि आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति का समर्पण, जीवन को दिव्य आनंद से भर सकता है।

श्रीकृष्णजी की भक्ति में रमकर व्यक्ति जब ज्ञान और ध्यान की गठरी बांध लेता है, तब वह संसार की अस्थिरताओं से मुक्त होकर प्रभु के प्रेम में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है। यह भाव हमें दर्शाता है कि ईश्वर के साथ एकाकार होने की अनुभूति ही सर्वोच्च आनंद प्रदान करती है।

प्रेमरस का निरंतर अनुभव भक्त को सदैव ईश्वर की भक्ति में तल्लीन रखता है। जब मन केवल श्रीकृष्णजी के स्मरण में लीन रहता है, तब समस्त सांसारिक दुख और मोह विलीन हो जाते हैं। यही सच्ची भक्ति की परिभाषा है—जहां प्रेम, आनंद और समर्पण का अद्भुत संगम होता है, जो भक्त को परम शांति और दिव्य अनुभूति प्रदान करता है। यह भजन हमें सिखाता है कि भक्ति केवल एक क्रिया नहीं, बल्कि ईश्वर से आत्मा का सच्चा मिलन है।
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