सजणी कब मिलस्याँ पिय म्हाराँ

सजणी कब मिलस्याँ पिय म्हाराँ

सजणी कब मिलस्याँ पिय म्हाराँ।
चरण कँवल गिरधर सुख देख्याँ, राख्यां नैणाँ थेरा।
णिरखाँ म्हारो चाव घणेरो मुखड़ा देख्यां थाराँ।
व्याकुल प्राण धरयांणा धीरज वेग हरयाँ म्हा पीराँ।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, थें बिण तपण घणेरा।।

(पिव=प्रियतम, थेरा=समीप,सामने, णिरखाँ=निरखने का,दर्शन करने का, धरयाँणा धीरज=धैर्य नहीं धरते, तपण=दुःख, घणेरा=अधिक)

सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के प्रति तीव्र प्रेम और उनके दर्शन की उत्कंठा का उद्गार हृदय को व्याकुल कर देता है। जैसे कोयल वसंत की प्रतीक्षा में गीत गाती है, वैसे ही भक्त का मन प्रभु के चरणों की छांव को खोजता है। यह भाव धर्मज्ञान की उस शिक्षा को प्रदर्शित करता है कि प्रभु का सान्निध्य ही जीवन की सच्ची शांति है।

प्रभु के मुख की छवि को निहारने की लालसा मन को बेकरार रखती है। नेत्र उनकी एक झलक के लिए तरसते हैं, जैसे कमल सूर्य के प्रकाश को पाने को आतुर रहता है। यह चिंतन की गहराई से उपजता है, जो मानता है कि प्रभु का रूप ही हृदय का सबसे अनमोल धन है।

विरह की आग में प्राण अधीर हो उठते, और धैर्य का बांध टूटने लगता है। यह पीड़ा ऐसी है, जैसे दीपक की लौ हवा में तड़पती है। यह उद्गार संत की वाणी की तरह पवित्र है, जो कहती है कि प्रभु के बिना हर क्षण असह्य है।

मीराबाई का हृदय गिरधर नागर के प्रेम में डूबा है, और उनके बिना जीवन दुखों से भरा है। यह प्रेम इतना गहन है कि सांसारिक सुख उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। धर्मगुरु की यह सीख हृदय में बसती है कि प्रभु से मिलन ही आत्मा का परम लक्ष्य है।

श्रीकृष्णजी के चरणों में सुख की अनुभूति भक्त के हृदय को प्रेरित करती है। यह भाव संत, चिंतक और धर्मगुरु के विचारों का संगम है, जो कहता है कि प्रभु के प्रति अटूट लालसा और प्रेम ही जीवन को सार्थक बनाते हैं।
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