सखी री लाज बैरण भई

सखी री लाज बैरण भई

सखी री लाज बैरण भई।।टेक।।
श्रीलाल गोपाल के सँग, काहे नाहीं गई।
कठिन क्रूर अक्रूर आयो, साजि रथ कहै नई।
रथ चढ़ाय गोपाल लैगो, हाथ मींजत रही।
कठिन छाती स्याम बिछुरत, बिरह तें मत तई।
दासी मीरां लाल गिरिधर, बिखर क्यूँ ना गई।।

(क्रूर=कठिन, अक्रूर=कंस का एक दूत जो कृष्ण को रथ पर चढ़ाकर मथुरा ले गया, हाथ मींजत रही=हाथ मलती रही, तई= संपत्प होती रही, बिखर क्यूँ ना गई=टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो गई)  

 
सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के बिछोह की गहन वेदना और प्रेम की तीव्रता का उद्गार हृदय को मथ डालता है। जैसे बादल बिन धरती सूखकर तड़पती है, वैसे ही भक्त का मन प्रभु के बिना व्याकुल हो उठता है। यह भाव धर्मज्ञान की उस शिक्षा को प्रदर्शित करता है कि प्रभु से विछोह आत्मा का सबसे बड़ा दुख है।

श्रीलाल गोपाल के साथ जाने का अवसर चूकने का पश्चाताप मन को कचोटता है। अक्रूर का आगमन और रथ पर प्रभु का प्रस्थान हृदय को चीर देता है, जैसे तूफान वृक्ष को उखाड़ फेंकता है। यह चिंतन की गहराई से उपजता है, जो मानता है कि प्रभु की निकटता ही जीवन का सच्चा सुख है।

प्रभु के बिछड़ते ही छाती पर कठोर प्रहार-सा अनुभव होता है। हाथ मलते रह जाते हैं, और विरह की अग्नि मन को भस्म करती है। यह उद्गार संत की वाणी की तरह निर्मल है, जो कहती है कि प्रभु के बिना जीवन का हर रंग फीका पड़ जाता है।

मीराबाई का हृदय गिरधर लाल के प्रेम में इस कदर डूबा है कि बिछोह में वह टुकड़े-टुकड़े होने को तैयार है। यह प्रेम इतना गहन है कि सांसारिक लाज उसके सामने तुच्छ है। धर्मगुरु की यह सीख हृदय में बसती है कि प्रभु के प्रति समर्पण ही सच्ची मुक्ति का मार्ग है।

श्रीकृष्णजी से बिछड़ने की पीड़ा भक्त के हृदय को विदीर्ण करती है, फिर भी उनका प्रेम उसे थामे रखता है। यह भाव संत, चिंतक और धर्मगुरु के विचारों का संगम है, जो कहता है कि प्रभु के प्रति प्रेम ही जीवन का सच्चा आधार है, चाहे वह सान्निध्य हो या विरह।
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