हरि बिन ना सरै री माई
हरि बिन ना सरै री माई
हरि बिन ना सरै री माई हरि बिन ना सरै री माई।मेरा प्राण निकस्या जात, हरी बिन ना सरै माई।
मीन दादुर बसत जल में, जल से उपजाई॥
तनक जल से बाहर कीना तुरत मर जाई।
कान लकरी बन परी काठ धुन खाई।
ले अगन प्रभु डार आये भसम हो जाई॥
बन बन ढूंढत मैं फिरी माई सुधि नहिं पाई।
एक बेर दरसण दीजे सब कसर मिटि जाई॥
पात ज्यों पीली पड़ी अरु बिपत तन छाई।
दासि मीरा लाल गिरधर मिल्या सुख छाई॥
(सरै=चलता है,पूरा होता है. दादुर=मेंढक, लकरी=लकड़ी, अगन=अग्नि,आग, पात= पत्ता, सुख छाई=आनन्द छा गया)
यह पद मीराबाई की गहरी भक्ति और भगवान श्री कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम को व्यक्त करता है। मीराबाई अपने जीवन में श्री कृष्ण के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। वह कहती हैं कि श्री कृष्ण के बिना उनका जीवन व्यर्थ है, जैसे काठ की लकड़ी में कीड़े लग जाते हैं, वैसे ही उनका मन बिना श्री कृष्ण के व्याकुल है। वह प्रेम की पीड़ा से व्याकुल हैं, और बिना श्री कृष्ण के उनका जीवन अधूरा है। मीराबाई अपने प्रभु श्री कृष्ण से मिलन की प्रार्थना करती हैं, ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले।
हरि बिना ना सरे री माई | वाणी: श्री राजेन्द्र दास जी महाराज #rajendradasjimaharaj_bhajan
इस सुंदर भजन में भक्त की गहरी वेदना और अनन्य प्रेम का भाव व्यक्त होता है। जब आत्मा परमात्मा से दूर होती है, तो उसकी स्थिति उस मीन के समान हो जाती है, जो जल के बिना जीवित नहीं रह सकती। इसी प्रकार, भक्त को केवल अपने आराध्य प्रभु श्रीकृष्णजी की कृपा और उपस्थिति ही जीवन प्रदान करती है।
इस उदगार में भक्ति की उच्चतम अवस्था दृष्टिगोचर होती है, जहां संसार के समस्त सुख-साधन तुच्छ प्रतीत होते हैं। जब मन प्रभु के विरह में जलता है, तो वह अग्नि में जलती लकड़ी की भाँति व्याकुल हो जाता है। यह भावना आत्मा की पुकार है, जो अपने इष्ट से केवल एक बार दर्शन की याचना करती है, ताकि समस्त कष्ट मिट जाएं और शांति प्राप्त हो सके।
श्रीकृष्णजी का मिलन ही जीवन का सर्वोच्च सुख है, और जब भक्त इस आनंद की अनुभूति करता है, तो समस्त विपत्तियाँ तिरोहित हो जाती हैं। यह भाव आत्मसमर्पण और पूर्ण निष्ठा को प्रदर्शित करता है, जहां व्यक्ति अपनी समस्त इच्छाओं को त्यागकर केवल प्रभु की आराधना में रत हो जाता है। यही वह अवस्था है, जहां आत्मा पूर्ण शांति और परम आनंद का अनुभव करती है। यह भजन भक्त की सच्ची पुकार और ईश्वर के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा को प्रकट करता है।
इस उदगार में भक्ति की उच्चतम अवस्था दृष्टिगोचर होती है, जहां संसार के समस्त सुख-साधन तुच्छ प्रतीत होते हैं। जब मन प्रभु के विरह में जलता है, तो वह अग्नि में जलती लकड़ी की भाँति व्याकुल हो जाता है। यह भावना आत्मा की पुकार है, जो अपने इष्ट से केवल एक बार दर्शन की याचना करती है, ताकि समस्त कष्ट मिट जाएं और शांति प्राप्त हो सके।
श्रीकृष्णजी का मिलन ही जीवन का सर्वोच्च सुख है, और जब भक्त इस आनंद की अनुभूति करता है, तो समस्त विपत्तियाँ तिरोहित हो जाती हैं। यह भाव आत्मसमर्पण और पूर्ण निष्ठा को प्रदर्शित करता है, जहां व्यक्ति अपनी समस्त इच्छाओं को त्यागकर केवल प्रभु की आराधना में रत हो जाता है। यही वह अवस्था है, जहां आत्मा पूर्ण शांति और परम आनंद का अनुभव करती है। यह भजन भक्त की सच्ची पुकार और ईश्वर के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा को प्रकट करता है।