हरि बिण क्यूँ जिवां री माय

हरि बिण क्यूँ जिवां री माय

हरि बिण क्यूँ जिवां री माय।।टेक।।
स्याम बिना बोराँ भयां, मण काठ ज्यूं घुण खाय।
मूल ओखद णा लग्याँ, म्हाणे प्रेम पीड़ा खाय।
मीण जल बिछुड़्या णा जीवाँ, तलफ मर मर जाय।
क्ँढताँ बण स्याम डोला, मुरलिया धुण पाय।
मीराँ रे प्रभु लाल गिरधर, वेग मिलश्यो आय।

(जिवां=जिवीत रहना, बोराँ=पागल, मूल=सच्ची, ओखद=औषधि)

यह पद मीराबाई की गहरी भक्ति और भगवान श्री कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम को व्यक्त करता है। मीराबाई अपने जीवन में श्री कृष्ण के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। वह कहती हैं कि श्री कृष्ण के बिना उनका जीवन व्यर्थ है, जैसे काठ की लकड़ी में कीड़े लग जाते हैं, वैसे ही उनका मन बिना श्री कृष्ण के व्याकुल है। वह प्रेम की पीड़ा से व्याकुल हैं, और बिना श्री कृष्ण के उनका जीवन अधूरा है। मीराबाई अपने प्रभु श्री कृष्ण से मिलन की प्रार्थना करती हैं, ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले।

 
इस सुंदर भजन में प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा प्रतिबिंबित होती है। जब भक्त प्रभु श्रीकृष्णजी के बिना अपने अस्तित्व की कल्पना करता है, तो उसे संसार का कोई भी सुख सार्थक नहीं लगता। मन को केवल वही प्रियतम सहज प्रतीत होता है, जिसके बिना जीवन निर्जीव सा प्रतीत होता है।

यह भाव आत्मा की गहन पीड़ा और विरह की व्यथा को प्रकट करता है। प्रेम की तीव्रता ऐसी होती है कि यह साधारण औषधियों से नहीं मिटती, बल्कि केवल परमात्मा के साक्षात्कार से ही शांति प्राप्त होती है। यह अनुभूति उस मीन के समान है, जो जल के बिना तड़पती है—प्रभु के बिना जीवन की कोई गति नहीं होती।

श्रीकृष्णजी की मुरली की ध्वनि ही वह संजीवनी है, जो भक्त के मन को शांत करती है और उसे जीवन देती है। जब भक्त अपने आराध्य की प्रतीक्षा करता है, तो उसकी चेतना केवल उन्हीं के आगमन के भाव में डूबी रहती है। यह भक्ति की चरम स्थिति को दर्शाता है, जहां समर्पण और प्रेम एकाकार हो जाते हैं, और आत्मा केवल प्रभु की कृपा में ही शांति पाती है। इसी अनुभव में सच्चा आनंद और सच्ची मुक्ति का मार्ग निहित है।
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