सखि म्हाँरो सामरियाणे देखवाँ कराँरी
सखि म्हाँरो सामरियाणे देखवाँ कराँरी
सखि म्हाँरो सामरियाणे, देखवाँ कराँरी ।।टेक।।साँवरो उमरण, साँवरो सुमरण, साँवरो ध्याण धराँ री।
ज्याँ ज्याँ चरण धरणाँ धरती धर, त्याँ त्याँ निरत कराँरी।
मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर कुंजा गैल फिराँरी।।
(सामरिया=श्यामवर्ण श्रीकृष्ण, निरत=नृत्य,नाच)
सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के प्रति अथाह प्रेम और समर्पण का उद्गार बहता है। यह भाव आत्मा की उस तड़प को दर्शाता है, जो उनके सांवले, मनमोहक स्वरूप के दर्शन को तरसती है। जैसे चातक स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए आसमान ताकता है, वैसे ही मन श्रीकृष्णजी की एक झलक पाने को बेकरार है। यह चाह केवल बाहरी रूप तक नहीं, बल्कि उनके गुणों, लीलाओं और उस प्रेम तक फैली है, जो आत्मा को उनके साथ जोड़ता है।
श्रीकृष्णजी का निरंतर स्मरण, उनके प्रति एकाग्र ध्यान और उनके चरणों में मन का रम जाना ही जीवन का सच्चा साधन है। जैसे सूरज की किरणें धरती को उजाला देती हैं, वैसे ही उनके चरणों की स्मृति हर पल मन को प्रकाशित करती है। जहां-जहां उनके चरण पड़ते हैं, वहां-वहां आत्मा नृत्य करने लगती है, मानो जीवन की हर धड़कन उनकी मुरली की तान पर थिरक रही हो। यह नृत्य केवल शरीर का नहीं, बल्कि मन और आत्मा का उत्सव है।
मीराबाई का हृदय उस प्रेम में डूबा है, जो कुंज-कुंज भटककर भी श्रीकृष्णजी को खोजता है। यह भटकना व्यर्थ नहीं, बल्कि एक पवित्र तलाश है—उस अनंत सुख की, जो केवल गिरधर नागर की छांव में मिलता है। जैसे कमल जल में रहकर भी निर्मल रहता है, वैसे ही यह प्रेम संसार की माया में रहकर भी शुद्ध रहता है। यह उद्गार मन को सिखाता है कि सच्ची शांति तभी मिलती है, जब हर सांस श्रीकृष्णजी के नाम से सज जाए।
राधारानी के समान प्रेम में लीन होकर जीना ही सच्ची भक्ति का मार्ग है। यह भाव मन को स्वतंत्र करता है, जैसे पंछी आकाश में उड़ान भरता है। जीवन का हर क्षण उनके प्रेम में समर्पित हो, यही इस भजन का गहरा संदेश है।