सइयाँ तुम बिनि नींद न आवै हो भजन

सइयाँ तुम बिनि नींद न आवै हो

सइयाँ तुम बिनि नींद न आवै हो।
पलक पलक मोहि जुगसे बीतै, छिनि छिनि विरह जरावै हो।
प्रीतम बिनि तिम जाइ न सजनी, दीपक भवन न भावै हो।
फूलन सेज सूल होइ लागी जागत रैण बिहावै हो।
कासूँ कहूँ कुण मानै मेरी, कह्याँ न को पतियावै हो।
प्रीतम पनंग डस्यो कर मेरो, लहरि लहरि जिव जावै हो।
दादर मोर पपइया बोलै, कोइल सबद सुणावै हो।
उमिग घटा घन ऊलरि आई, बीजू चमक डरावै हो।
है कोई जग में राम सनेही, ऐ उरि साल मिटावै हो।
मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, नैणाँ देख्याँ भावै हो।।

(तिम=अन्धकार, सूल=काँटे, पतियावै=विश्वास करना, पनंग=पन्नग,सर्प, दादर=दादुर,मेंढक, साल=दुःख)

सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के प्रति विरह की तीव्र पीड़ा और उनके प्रेम में डूबे मन का उद्गार बयां होता है। यह भाव उस आत्मा की व्यथा को प्रदर्शित करता है, जो अपने प्रिय के बिना अधूरी है, जैसे चन्द्रमा बिना रात का आलम अधूरा रहता है। नींद न आने की यह छटपटाहट केवल शरीर की थकान नहीं, बल्कि मन की उस गहरी चाह का प्रतीक है, जो श्रीकृष्णजी के दर्शन और सान्निध्य को तरसती है।


हर पल उनके बिना युग-सा बीतता है, और विरह की आग मन को क्षण-क्षण जलाती है। यह विरह इतना गहन है कि जीवन का हर सुख फीका पड़ जाता है। जैसे दीया बिना तेल के बुझ जाता है, वैसे ही प्रिय के बिना घर का हर कोना अंधकारमय लगता है। फूलों की सेज भी कांटों-सी चुभती है, और रातें जागकर बीतती हैं, क्योंकि मन केवल उनके ही विचार में खोया रहता है।


इस पीड़ा को कोई नहीं समझता, कोई विश्वास नहीं करता। यह दर्द सर्प के डंक-सा है, जो लहर-लहर आत्मा को काटता है। प्रकृति भी इस विरह में साथ देती है—मेंढक, मोर और कोयल की आवाजें मन को और व्याकुल करती हैं, और बिजली की चमक डर के साथ प्रिय की याद दिलाती है। यह उद्गार उस तलाश को दर्शाता है, जो किसी सच्चे स्नेही की खोज में है, जो इस दुख को मिटा सके। 


मीराबाई का मन श्रीकृष्णजी के अविनाशी स्वरूप में रमता है। उनके नयनों को केवल वही भाते हैं, जैसे प्यासा केवल जल को ही चाहता है। यह प्रेम मन को मुक्त करता है, क्योंकि सच्चा सुख केवल उनके चरणों में ही है।

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