सखी आपनो दाम खोटो

सखी आपनो दाम खोटो

सखी आपनो दाम खोटो दोस काहां कुबज्याकू॥टेक॥
कुबजा दासी कंस रायकी। दराय कोठोडो॥१॥
आपन जाय दुबारका छाय। कागद हूं कोठोडो॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। कुबजा बडी हरी छोडो॥३॥


सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी की असीम करुणा और भक्ति की महिमा का उद्गार हृदय को स्पर्श करता है। जैसे चंदन की सुगंध हर दिशा में फैलती है, वैसे ही प्रभु का प्रेम हर भक्त के हृदय तक पहुँचता है, चाहे उसकी सामाजिक स्थिति कुछ भी हो। यह भाव धर्मज्ञान की उस शिक्षा को प्रदर्शित करता है कि प्रभु के सामने केवल हृदय की पवित्रता मायने रखती है।

कुबजा, जो कंस की दासी है, अपने सादे जीवन में भी श्रीकृष्णजी के प्रति प्रेम रखती है। उसका हृदय निश्छल भक्ति से भरा है, और प्रभु उसकी पुकार को सुनते हैं। यह चिंतन की गहराई से उपजता है, जो मानता है कि प्रभु का दरवाजा हर उस भक्त के लिए खुला है, जो सच्चे मन से उन्हें याद करता है।

प्रभु का संदेश कुबजा के द्वार तक पहुँचकर उसके जीवन को आलोकित कर देता है। यह कृपा ऐसी है, जैसे वर्षा की बूँदें सूखी धरती को जीवन देती हैं। यह उद्गार संत की वाणी की तरह निर्मल है, जो कहती है कि प्रभु का प्रेम हर भेद को मिटा देता है।

मीराबाई का मन गिरधर नागर की इस लीला से और गहराई में डूब जाता है, जो कुबजा की भक्ति की महानता को देखकर प्रेरित होता है। यह भाव धर्मगुरु की उस सीख को रेखांकित करता है कि प्रभु की कृपा सदा उन पर बरसती है, जो निष्कपट भाव से उनकी शरण में आते हैं।
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