सावण दे रह्या जोरा रे घर आयो
सावण दे रह्या जोरा रे घर आयो
सावण दे रह्या जोरा रे घर आयो जी स्याम मोरा रे।।टेक।।उमड़ घुमड़ चहुँदिस से आया, गरजत है घन घोरा, रे।
दादुर मोर पपीहा बोलै, कोयल, कर रही सोरा रे।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, ज्यों वारूँ सोही थोरा रे।।
(दे रहा जोरा रे=भावनाओं को उद्दीप्त कर रहा है वारूँ=समर्पित करूँ)
सुंदर भजन में सावन की रिमझिम और श्रीकृष्णजी के प्रति प्रेम का उद्गार हृदय को भिगो देता है। जैसे बादल उमड़-घुमड़ कर धरती को तृप्त करते हैं, वैसे ही प्रभु का आगमन आत्मा को प्रेम से सराबोर करता है। यह भाव धर्मज्ञान की उस सीख को प्रदर्शित करता है कि प्रभु का प्रेम प्रकृति की तरह सर्वत्र व्याप्त है।
सावन का घनघोर मेघ और उसकी गर्जना मन में भक्ति की लहरें जागृत करती है। मेढक, मोर, पपीहा और कोयल की मधुर ध्वनियाँ प्रभु के नाम की तरह कानों में रस घोलती हैं। यह चित्रण चिंतन की उस गहराई से उपजता है, जो मानता है कि प्रकृति और प्रभु का प्रेम एक ही सत्य के दो रूप हैं।
मीराबाई का हृदय श्रीकृष्णजी के लिए व्याकुल है, जो हर सांस में उन्हें समर्पित है। जैसे प्यासी धरती सावन की बूँदों को आत्मसात करती है, वैसे ही भक्त का मन प्रभु के दर्शन को तरसता है। यह उद्गार संत की वाणी की तरह पवित्र है, जो कहती है कि प्रभु के प्रति समर्पण ही जीवन का सच्चा आनंद है।
गिरधर नागर का प्रेम भक्त के हृदय में सावन की तरह उत्साह और उमंग भर देता है। यह प्रेम इतना गहन है कि हर राग, हर ध्वनि में प्रभु की झलक दिखती है। धर्मगुरु की यह शिक्षा हृदय में बसती है कि प्रभु का नाम हर मौसम में, हर पल गाया जा सकता है।
प्रकृति और भक्ति का यह संगम श्रीकृष्णजी के प्रति अटूट प्रेम को और गहरा करता है। जैसे सावन की फुहारें धरती को नवजीवन देती हैं, वैसे ही प्रभु का स्मरण आत्मा को शांति और प्रेम से भर देता है।