हरि तुम कायकू प्रीत लगाई

हरि तुम कायकू प्रीत लगाई

हरि तुम कायकू प्रीत लगाई॥टेक॥
प्रीत लगाई पर दुःख दीनो। कैशी लाज न आई॥१॥
गोकुल छांड मथुराकु जावूं। वामें कौन बढाई॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। तुमकूं नंद दुवाई॥३॥

 
यह भजन मीराबाई के भगवान श्री कृष्ण के प्रति गहरी भक्ति और उनके प्रेम में होने वाली कठिनाइयों का चित्रण करता है। पहले शेर में, मीराबाई भगवान से पूछती हैं कि उन्होंने भक्तों को प्रेम में क्यों बांधा, जब प्रेम के कारण दुःख भी मिलते हैं, तो क्या इस प्रेम में कोई लाज नहीं आई? दूसरे शेर में, मीराबाई श्री कृष्ण से कहती हैं कि वह गोकुल छोड़कर मथुरा जाना चाहती हैं, लेकिन उन्हें यह समझ नहीं आता कि इस निर्णय के पीछे किसकी प्रेरणा है और कौन उनकी इस यात्रा की प्रशंसा करेगा।
 
तीसरे शेर में, मीराबाई भगवान गिरिधर नागर से अपनी प्रार्थना करती हैं और कहती हैं कि वह नंद बाबा से आशीर्वाद प्राप्त करना चाहती हैं, क्योंकि वह भगवान के प्रेम में पूरी तरह समर्पित हैं। इस भजन में मीराबाई भगवान श्री कृष्ण के प्रेम के कठिन मार्ग पर चलने के बावजूद, उनके प्रेम में अडिग रहने और भगवान से आशीर्वाद की कामना करने का संदेश देती हैं।


इस सुंदर भजन में प्रेम की गहराई और भक्ति की पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया गया है। जब आत्मा प्रभु श्रीकृष्णजी के प्रेम में बंध जाती है, तब उसके लिए संसार के अन्य सुख-दुख गौण हो जाते हैं। यह भावना एक ऐसी पुकार है, जहां भक्त अपने आराध्य से प्रश्न करता है कि प्रेम का यह मार्ग इतना कठिन क्यों है।

यह अनुभूति प्रेम की परीक्षा को दर्शाती है—जहां भक्ति में समर्पण तो है, परंतु वह कठिनाइयों से अछूता नहीं है। मीराबाई का भाव यह संकेत देता है कि जब व्यक्ति ईश्वर की शरण में आता है, तो उसे प्रेम की गहन अनुभूति तो होती है, लेकिन साथ ही वह संसार की विघ्न-बाधाओं से भी गुजरता है।

श्रीकृष्णजी के प्रेम में डूबा हुआ मन केवल उन्हीं का स्मरण करता है, उनके बिना जीवन रिक्त प्रतीत होता है। यह आत्मसमर्पण और अनन्य विश्वास की अवस्था है, जहां भक्त यह स्वीकार करता है कि उसका संपूर्ण अस्तित्व केवल प्रभु के प्रेम में ही समाहित है। यही भक्ति की सच्ची परीक्षा है—जहां प्रेम में त्याग भी है, तप भी है, और अंततः अनंत शांति का अनुभव भी है। यह भजन हमें सिखाता है कि कठिनाइयों के बावजूद, भक्त का प्रेम अडिग और अमिट बना रहता है।
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