हारे जावो जावोरे जीवन जुठडां
हारे जावो जावोरे जीवन जुठडां
हारे जावो जावोरे जीवन जुठडां। हारे बात करतां हमे दीठडां॥टेक॥सौ देखतां वालो आळ करेछे। मारे मन छो मीठडारे॥१॥
वृंदावननी कुंजगलीनमें। कुब्जा संगें दीठ डारे॥२॥
चंदन पुष्पने माथे पटको। बली माथे घाल्याता पछिडारे॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। मारे मनछो नीठडारे॥४॥
पद का भावार्थ:
मीराबाई कहती हैं कि जीवन के झूठे आकर्षणों को छोड़कर, वह अपने प्रियतम (भगवान श्रीकृष्ण) की ओर बढ़ रही हैं। वह कहती हैं कि जब वह उनसे बात करती हैं, तो उन्हें साक्षात दर्शन होते हैं। वृंदावन की कुंज गलियों में, जहां उन्होंने कुब्जा के साथ समय बिताया, वहां भी उनकी उपस्थिति महसूस होती है। चंदन और पुष्पों से सजी मस्तक पर पटका (पगड़ी) बांधकर, वह उनके लिए बलिदान होने को तैयार हैं।
अंत में, मीराबाई कहती हैं कि उनके प्रभु गिरिधर नागर उनके मन को अत्यंत प्रिय हैं।
पद की व्याख्या:
इस पद में मीराबाई ने सांसारिक मोह-माया को त्यागकर भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त किया है। वह कहती हैं कि जीवन के झूठे आकर्षणों को छोड़कर, वह अपने प्रियतम की ओर अग्रसर हैं। वृंदावन की कुंज गलियों में भगवान की लीलाओं का स्मरण करते हुए, वह उनकी उपस्थिति को महसूस करती हैं। चंदन और पुष्पों से सजी मस्तक पर पटका बांधकर, वह उनके लिए बलिदान होने को तैयार हैं। अंततः, मीराबाई अपने प्रभु गिरिधर नागर के प्रति अपने अटूट प्रेम और समर्पण को प्रकट करती हैं।
मीराबाई कहती हैं कि जीवन के झूठे आकर्षणों को छोड़कर, वह अपने प्रियतम (भगवान श्रीकृष्ण) की ओर बढ़ रही हैं। वह कहती हैं कि जब वह उनसे बात करती हैं, तो उन्हें साक्षात दर्शन होते हैं। वृंदावन की कुंज गलियों में, जहां उन्होंने कुब्जा के साथ समय बिताया, वहां भी उनकी उपस्थिति महसूस होती है। चंदन और पुष्पों से सजी मस्तक पर पटका (पगड़ी) बांधकर, वह उनके लिए बलिदान होने को तैयार हैं।
अंत में, मीराबाई कहती हैं कि उनके प्रभु गिरिधर नागर उनके मन को अत्यंत प्रिय हैं।
पद की व्याख्या:
इस पद में मीराबाई ने सांसारिक मोह-माया को त्यागकर भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त किया है। वह कहती हैं कि जीवन के झूठे आकर्षणों को छोड़कर, वह अपने प्रियतम की ओर अग्रसर हैं। वृंदावन की कुंज गलियों में भगवान की लीलाओं का स्मरण करते हुए, वह उनकी उपस्थिति को महसूस करती हैं। चंदन और पुष्पों से सजी मस्तक पर पटका बांधकर, वह उनके लिए बलिदान होने को तैयार हैं। अंततः, मीराबाई अपने प्रभु गिरिधर नागर के प्रति अपने अटूट प्रेम और समर्पण को प्रकट करती हैं।
सुंदर भजन में सांसारिक मोह-माया को त्यागकर श्रीकृष्णजी के प्रति अटूट भक्ति और प्रेम की गहन अनुभूति प्रकट होती है। जब भक्त ईश्वर से जुड़ जाता है, तब जीवन की प्रत्येक गतिविधि उनके स्मरण और मिलन की अभिलाषा में परिवर्तित हो जाती है।
मीराबाई की भक्ति इस स्तर तक पहुँच गई है कि उन्हें जीवन के भौतिक आकर्षण तुच्छ प्रतीत होते हैं। वृंदावन की कुंज गलियों में श्रीकृष्णजी के होने का अहसास उनके लिए वास्तविकता का हिस्सा है। यह भाव दर्शाता है कि जब प्रेम सच्चा होता है, तब वह केवल बाह्य जगत तक सीमित नहीं रहता, बल्कि आत्मा की गहराइयों तक पहुँच जाता है।
चंदन और पुष्पों से सजे मस्तक पर पटका बांधना, बलिदान और समर्पण का प्रतीक है। प्रेम में जब त्याग और पूर्ण भक्ति समाहित हो जाती है, तब भक्त के लिए प्रियतम ही संपूर्ण संसार बन जाता है। श्रीकृष्णजी के प्रति इस आत्मसमर्पण में आनंद और शांति का दिव्य स्वरूप प्रकट होता है।
मीराबाई की भक्ति यह दर्शाती है कि जब समर्पण संपूर्ण हो जाता है, तब हर सांस में ईश्वर का ही वास होता है। यही भजन का संदेश है—जहाँ प्रेम और भक्ति ही आत्मा की पूर्णता का मार्ग बन जाते हैं। यही सच्ची भक्ति की अवस्था है, जहाँ सांसारिक सीमाएँ विलीन हो जाती हैं, और भक्त श्रीकृष्णजी के प्रेम में ही स्वयं को समर्पित कर देता है।