हारि आवदे खोसरी
हारि आवदे खोसरी
हारि आवदे खोसरी। बुंद न भीजे मो सारी॥टेक॥येक बरसत दुजी पवन चलत है। तिजी जमुना गहरी॥१॥
एक जोबन दुजी दहीकी मथीनया। तिजी हरि दे छे गारी॥२॥
ब्रज जशोदा राणी आपने लालकू। इन सुबहूमें हारी॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। प्रभु चरणा पर वारी॥४॥
पद का भावार्थ:
मीराबाई कहती हैं कि वह हार मानकर भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आई हैं, लेकिन उनकी साड़ी का एक बूंद भी भीगा नहीं है, अर्थात् उनकी भक्ति की परीक्षा अभी शेष है। वह तीन कठिनाइयों का उल्लेख करती हैं: पहली वर्षा, दूसरी तेज हवा, और तीसरी गहरी यमुना नदी।
ये तीनों मिलकर उनकी भक्ति की परीक्षा ले रही हैं। वह अपने यौवन, दही मथने की क्रिया, और भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दी गई गालियों का भी उल्लेख करती हैं, जो उनकी भक्ति के मार्ग में आने वाली चुनौतियों का प्रतीक हैं। अंत में, मीराबाई कहती हैं कि ब्रज में यशोदा रानी अपने लाल (कृष्ण) के साथ इन सभी कठिनाइयों में हार गईं, और वह स्वयं भी अपने प्रभु गिरिधर नागर के चरणों में समर्पित हो गई हैं।
पद की व्याख्या:
इस पद में मीराबाई ने भक्ति मार्ग में आने वाली कठिनाइयों और चुनौतियों का वर्णन किया है। वर्षा, तेज हवा, और गहरी यमुना नदी जैसी प्राकृतिक बाधाएं उनकी भक्ति की परीक्षा लेती हैं। यौवन, दही मथना, और भगवान की लीलाओं में मिली गालियां उनके समर्पण की गहराई को दर्शाती हैं। अंततः, वह यशोदा रानी के उदाहरण से प्रेरणा लेकर अपने प्रभु के चरणों में समर्पित हो जाती हैं, जो उनकी अटूट भक्ति और समर्पण का प्रतीक है।
मीराबाई कहती हैं कि वह हार मानकर भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आई हैं, लेकिन उनकी साड़ी का एक बूंद भी भीगा नहीं है, अर्थात् उनकी भक्ति की परीक्षा अभी शेष है। वह तीन कठिनाइयों का उल्लेख करती हैं: पहली वर्षा, दूसरी तेज हवा, और तीसरी गहरी यमुना नदी।
ये तीनों मिलकर उनकी भक्ति की परीक्षा ले रही हैं। वह अपने यौवन, दही मथने की क्रिया, और भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दी गई गालियों का भी उल्लेख करती हैं, जो उनकी भक्ति के मार्ग में आने वाली चुनौतियों का प्रतीक हैं। अंत में, मीराबाई कहती हैं कि ब्रज में यशोदा रानी अपने लाल (कृष्ण) के साथ इन सभी कठिनाइयों में हार गईं, और वह स्वयं भी अपने प्रभु गिरिधर नागर के चरणों में समर्पित हो गई हैं।
पद की व्याख्या:
इस पद में मीराबाई ने भक्ति मार्ग में आने वाली कठिनाइयों और चुनौतियों का वर्णन किया है। वर्षा, तेज हवा, और गहरी यमुना नदी जैसी प्राकृतिक बाधाएं उनकी भक्ति की परीक्षा लेती हैं। यौवन, दही मथना, और भगवान की लीलाओं में मिली गालियां उनके समर्पण की गहराई को दर्शाती हैं। अंततः, वह यशोदा रानी के उदाहरण से प्रेरणा लेकर अपने प्रभु के चरणों में समर्पित हो जाती हैं, जो उनकी अटूट भक्ति और समर्पण का प्रतीक है।
सुंदर भजन में भक्ति की परीक्षा और समर्पण की गहनता का भाव प्रकट होता है। जब भक्त ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण कर देता है, तब उसे अनेक चुनौतियों और परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। यह संकेत करता है कि सच्चा प्रेम केवल सुविधाओं और सरल परिस्थितियों में नहीं, बल्कि कठिनाइयों के बीच भी अडिग रहता है।
मीराबाई अपने प्रियतम श्रीकृष्णजी को पाने के लिए समस्त बाधाओं को स्वीकार करती हैं। वर्षा, तेज हवा और गहरी यमुना नदी—ये सब प्रतीकात्मक रूप से उनकी भक्ति की कसौटी को दर्शाते हैं। जब भक्ति दृढ़ होती है, तब कोई भी कठिनाई भक्त की निष्ठा को डिगा नहीं सकती।
श्रीकृष्णजी की लीलाओं में रमते हुए, मीराबाई अपने आत्मिक प्रेम को प्रकट करती हैं। उनका समर्पण इस स्तर तक पहुँच जाता है कि सांसारिक सीमाओं का कोई प्रभाव नहीं रह जाता। यशोदा रानी के अपने पुत्र श्रीकृष्णजी के प्रति अनुराग की तरह, मीराबाई भी अपने आराध्य के चरणों में स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर देती हैं।
यह भाव यही दर्शाता है कि सच्ची भक्ति परीक्षा और संघर्ष के बावजूद निरंतर बनी रहती है। जब भक्त अपने आराध्य में पूर्ण रूप से विलीन हो जाता है, तब उसके लिए संसार की कोई अन्य वास्तविकता शेष नहीं रहती। यही भक्ति की पराकाष्ठा है—जहाँ प्रेम केवल भावना नहीं, बल्कि आत्मा की अनवरत यात्रा बन जाता है।
मीराबाई अपने प्रियतम श्रीकृष्णजी को पाने के लिए समस्त बाधाओं को स्वीकार करती हैं। वर्षा, तेज हवा और गहरी यमुना नदी—ये सब प्रतीकात्मक रूप से उनकी भक्ति की कसौटी को दर्शाते हैं। जब भक्ति दृढ़ होती है, तब कोई भी कठिनाई भक्त की निष्ठा को डिगा नहीं सकती।
श्रीकृष्णजी की लीलाओं में रमते हुए, मीराबाई अपने आत्मिक प्रेम को प्रकट करती हैं। उनका समर्पण इस स्तर तक पहुँच जाता है कि सांसारिक सीमाओं का कोई प्रभाव नहीं रह जाता। यशोदा रानी के अपने पुत्र श्रीकृष्णजी के प्रति अनुराग की तरह, मीराबाई भी अपने आराध्य के चरणों में स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर देती हैं।
यह भाव यही दर्शाता है कि सच्ची भक्ति परीक्षा और संघर्ष के बावजूद निरंतर बनी रहती है। जब भक्त अपने आराध्य में पूर्ण रूप से विलीन हो जाता है, तब उसके लिए संसार की कोई अन्य वास्तविकता शेष नहीं रहती। यही भक्ति की पराकाष्ठा है—जहाँ प्रेम केवल भावना नहीं, बल्कि आत्मा की अनवरत यात्रा बन जाता है।