होली पिया बिन लागाँ री खारी

होली पिया बिन लागाँ री खारी

होली पिया बिन लागाँ री खारी।।टेक।।
सूनो गाँव देस सब सूनो, सूनी सेज अटारी।
सूनी बिरहन पिब बिन डोलें, तज गया पीव पियारी।
बिरहा दुख भारी।
देस बिदेसा णा जावाँ म्हारो अणेसा भारी।
गणताँ गणतां घिस गयाँ रेखाँ आँगरियाँ री सारी।
आयाँ णा री मुरारी।
बाजोयं जांझ मृदंग मुरलिया बाज्यां कर इकतारी।
आयां बसंत पिया घर णारी, म्हारी पीड़ा भारी।
श्याम क्याँरी बिसारी।
ठाँड़ी अरज करां गिरधारी, राख्यां लाल हमारी।
मीराँ रे प्रभु मिलज्यो माधो, जनम जनम री क्वाँरी।
मणे लागी सरण तारी।।
(खारी=फीकी,आनन्दहीन, अणेसा=अन्देसा,संशय, क्वाँरी=अविवाहित)

सुंदर भजन में प्रेम और विरह का गहन उद्गार प्रदर्शित होता है। जब प्रियतम दूर होता है, तब समस्त संसार शून्य और फीका प्रतीत होता है। न आनंद रहता है, न उल्लास, केवल विरह की पीड़ा हृदय में व्याप्त होती है।

जीवन की प्रत्येक अनुभूति प्रियतम की उपस्थिति से जुड़ी होती है। जब वह दूर होता है, तब मन शंका और अधूरी आशाओं में भटकता है। प्रिय के बिना हर उल्लास, हर उत्सव अधूरा लगता है। होली के रंग भी फीके पड़ जाते हैं, जब हृदय का स्नेहपूर्ण संग ही अनुपस्थित हो।

प्रेम का सच्चा स्वरूप समर्पण और प्रतीक्षा में निहित होता है। यह केवल क्षणिक आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों तक उतरने वाली अनुभूति है। जब प्रियतम का आगमन होता है, तब समस्त दुख जैसे बह जाता है और जीवन एक नव-संभावना से भर उठता है।

भजन में मीरा की गहरी आराधना और उनकी अनंत प्रतीक्षा का भाव स्पष्ट होता है। उनकी प्रार्थना में केवल मिलन की इच्छा नहीं, बल्कि आत्मा की पूर्णता का संदेश समाहित है। जब समर्पण सच्चा होता है, तब प्रतीक्षा भी तपस्या बन जाती है, और अंततः प्रेम अपने शाश्वत स्वरूप में प्रकट होता है।
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