रंगेलो राणो काई करसो मारो राज

रंगेलो राणो काई करसो मारो राज

रंगेलो राणो कई करसो मारो राज।
हूं तो छांडी छांडी कुलनी लाज॥टेक॥
पग बांधीनें घुंगरा हातमों छीनी सतार।
आपने ठाकूरजीके मंदिर नाचुं वो हरी जागे दिनानाथ॥१॥
बिखको प्यालो राणाजीने भेजो कैं दिजे मिराबाई हात।
कर चरणामृत पीगई मीराबाई ठाकुरको प्रसाद॥ रंगेलो०॥२॥
सापरो पेटारो राणाजीनें भेजों दासाजीने हात।
सापरो उपाडीनें गलामों डारयो हो गयो चंदन हार।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तूं मारो भरतार॥३॥


सुन्दर भजन में मीराबाई के अटूट प्रेम और समर्पण का उदगार है। सांसारिक बंधनों को त्यागकर वे अपने आराध्य श्रीकृष्णजी में विलीन हो जाती हैं। कुल की लाज छोड़कर, भक्तिपथ पर निरंतर अग्रसर होती हैं, जहाँ उनका सर्वस्व केवल गिरिधर नागर हैं।

मंदिर में नृत्य करते हुए उनकी भक्ति की गहराई प्रकट होती है। पग में घुंघरू और हाथ में सतार लिए वे भक्ति में आत्मविभोर होकर श्रीकृष्णजी की आराधना करती हैं। यह प्रेम की वह अवस्था है, जहाँ हृदय का प्रत्येक भाव आराध्य में समर्पित हो जाता है।

जब राणाजी उन्हें विष का प्याला भेजते हैं, तब वे इसे चरणामृत समझकर पी जाती हैं। यह उनकी भक्ति की पराकाष्ठा है—जहाँ भक्त अपने प्रभु के चरणों में विश्वास और प्रेम से समर्पित होकर संसार के प्रत्येक कष्ट को सहजता से स्वीकार करता है।

सर्प भेजे जाने पर भी वे भयभीत नहीं होतीं, बल्कि इसे अपने आराध्य का आशीर्वाद मानकर गले में धारण कर लेती हैं। यह उनके प्रेम और विश्वास की वह अविजेय शक्ति है, जहाँ सांसारिक कष्ट उनकी भक्ति को विचलित नहीं कर सकते।

मीराबाई का मन केवल गिरिधर नागर के प्रेम में स्थित है। उनकी भक्ति आत्मा को शुद्धता और प्रेम की उच्चतम स्थिति में स्थापित करती है, जहाँ संसार के बंधन तुच्छ प्रतीत होते हैं और केवल श्रीकृष्णजी का स्मरण ही जीवन का वास्तविक सुख बन जाता है।
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