सखी मेरी नींद नसानी हो

सखी मेरी नींद नसानी हो

सखी, मेरी नींद नसानी हो।
पिवको पंथ निहारत सिगरी रैण बिहानी हो॥
सखिअन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी हो।
बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय ऐसी ठानी हो॥
अंग अंग व्याकुल भई मुख पिय पिय बानी हो।
अंतरबेदन बिरह की कोई पीर न जानी हो॥
ज्यूं चातक घनकूं रटै, मछली जिमि पानी हो।
मीरा व्याकुल बिरहणी सुद बुध बिसरानी हो॥

(नसानी=नष्ट होना, कल ना पड़ाँ=चैन नहीं मिलता, खीण=क्षीण, अन्तर=आन्तरिक, विसराणी=छोड़ दी)


सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के विरह की गहन व्याकुलता और प्रेम की तीव्रता का उद्गार हृदय को बेचैन कर देता है। जैसे रात की सैरंध्री चांद के बिना अधूरी रहती है, वैसे ही भक्त का मन प्रभु के दर्शन बिन सूना पड़ जाता है। यह भाव धर्मज्ञान की उस शिक्षा को प्रदर्शित करता है कि प्रभु से बिछोह आत्मा का सबसे गहरा दुख है।

रातभर पथ निहारते नेत्रों से नींद कोसों दूर है। सखियों की सलाह मन को छूती नहीं, क्योंकि प्रभु की एक झलक बिन चैन नहीं। यह दृढ़ निश्चय चिंतन की गहराई से उपजता है, जो मानता है कि प्रभु का प्रेम ही हृदय की सच्ची धड़कन है।

हर अंग में व्याकुलता और मुख से पिया-पिया की रट ऐसी है, जैसे हवा में दीपक की लौ तड़पती है। विरह की आंतरिक वेदना इतनी गहन है कि उसे कोई समझ नहीं पाता। यह उद्गार संत की वाणी की तरह निर्मल है, जो कहती है कि प्रभु के बिना जीवन का हर सुख व्यर्थ है।

जैसे चातक बादल की बूंद को तरसता है और मछली जल के लिए तड़पती है, वैसे ही मीराबाई का हृदय श्रीकृष्णजी के लिए व्याकुल है। उनकी याद में सारी सुध-बुध खो गई है। धर्मगुरु की यह सीख हृदय में बसती है कि प्रभु के प्रेम में खो जाना ही सच्ची भक्ति है।  गिरधर नागर के प्रति यह विरह और प्रेम भक्त के हृदय को सदा प्रभु के रंग में रंगता है। यह भाव संत, चिंतक और धर्मगुरु के विचारों का संगम है, जो कहता है कि प्रभु के प्रति अटूट प्रेम ही जीवन का परम ध्येय है।

Next Post Previous Post