लक्ष्मण धीरे चलो मैं हारी

लक्ष्मण धीरे चलो मैं हारी

लक्ष्मण धीरे चलो मैं हारी॥टेक॥
रामलक्ष्मण दोनों भीतर। बीचमें सीता प्यारी॥१॥
चलत चलत मोहे छाली पड गये। तुम जीते मैं हारी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बलिहारी॥३॥

मीरा बाई के इस भजन में वे भगवान राम, लक्ष्मण और सीता के वनवास के प्रसंग का वर्णन करती हैं। सीता माता लक्ष्मण से कहती हैं, "लक्ष्मण, धीरे चलो, मैं थक गई हूं।" राम और लक्ष्मण आगे चल रहे हैं, और उनके बीच में सीता प्यारी हैं। चलते-चलते सीता के पांव में छाले पड़ गए हैं, वे कहती हैं, "तुम जीत गए, मैं हार गई।" अंत में, मीरा अपने प्रभु गिरिधर नागर (कृष्ण) के चरणकमलों पर बलिहारी जाती हैं, यह दर्शाते हुए कि वे अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित हैं।

 

सुन्दर भजन में भक्ति की गहनता और समर्पण का उदगार है। यह वह भावना है, जिसमें आत्मा ईश्वर के चरणों में पूर्णतः समर्पित हो जाती है। मीराबाई के भाव श्रीकृष्णजी के प्रति असीम श्रद्धा और प्रेम को व्यक्त करते हैं।

भक्त की यात्रा कठिन हो सकती है, लेकिन ईश्वर के साथ चलते हुए आत्मा अपनी सीमाओं को स्वीकार कर स्वयं को उनकी कृपा में अर्पित कर देती है। यह भजन आत्मसमर्पण और प्रेम की गहराई को दर्शाता है, जहाँ भक्त स्वयं को ईश्वर की इच्छा पर छोड़कर उनके चरणों की वंदना करता है।

रामलक्ष्मण और सीताजी का संग भक्त के मन में दिव्यता और शुद्धता की अनुभूति कराता है। यह प्रेम और भक्ति की वही स्थिति है, जिसमें आत्मा ईश्वर की उपस्थिति में अपने अस्तित्व का विसर्जन कर देती है। श्रीकृष्णजी के चरणों में समर्पण से जीवन में संतोष और शांति का संचार होता है।

इस भजन में आत्मा की वह यात्रा प्रकट होती है, जहाँ मनुष्य अपनी सीमाओं को पहचानकर ईश्वर के प्रेम में विलीन हो जाता है। यह भाव मन में निश्चलता, विश्वास और भक्ति का संचार करता है, जिससे जीवन में परमानंद और ईश्वरीय कृपा का अनुभव होता है।

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