शाम मुरली बजाई कुंजनमों
शाम मुरली बजाई कुंजनमों
शाम मुरली बजाई कुंजनमों॥टेक॥रामकली गुजरी गांधारी। लाल बिलावल भयरोमों॥१॥
मुरली सुनत मोरी सुदबुद खोई। भूल पडी घरदारोमों॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। वारी जाऊं तोरो चरननमों॥३॥
श्याम मोसूँ ऐंडो डोलै हो
श्याम मोसूँ ऐंडो डोलै हो।
औरन सूँ खेलै धमार, म्हासूँ मुखहुँ न बोले हो॥
म्हारी गलियाँ ना फिरे वाके, आँगन डोलै हो।
म्हारी अँगुली ना छुए वाकी, बहियाँ मरोरै हो॥
म्हारो अँचरा ना छुए वाको, घूँघट खोलै हो।
'मीरा' को प्रभु साँवरो, रंग रसिया डोलै हो॥
सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के प्रति गहन प्रेम और उनके मुरली की मधुर तान में खो जाने का उद्गार झलकता है। श्रीकृष्णजी की मुरली की धुन कुंजनों में गूंजती है, जो मन को राग-रागिनियों जैसे रामकली, गुजरी, गांधारी, बिलावल और भैरवी के रंग में रंग देती है। यह धुन इतनी मोहक है कि सुनने वाला अपनी सुध-बुध खो बैठता है, जैसे नदी अपने प्रवाह में सब कुछ भूल जाती है। मीराबाई का मन इस धुन में डूबकर घर-द्वार, संसार की मर्यादाओं को भूल जाता है, और केवल श्रीकृष्णजी के चरणों में समर्पित हो जाता है।
यह उद्गार उस प्रेम की गहराई को दर्शाता है, जो श्रीकृष्णजी के प्रति मीराबाई का मन बांधे रखता है। वह उनके रंग-रसिया स्वरूप में खोई है, पर उनके रूठने की शिकायत भी करती है। श्रीकृष्णजी औरों के साथ हंसी-ठिठोली करते हैं, धमार खेलते हैं, पर मीराबाई से मुंह फेर लेते हैं। उनकी गलियों में नहीं आते, आंगन में नहीं डोलते, न उनकी अंगुली छूते हैं, न अंचरा पकड़ते हैं। यह शिकायत प्रेम की वह पुकार है, जो प्रिय के सान्निध्य को तरसती है, जैसे चातक वर्षा की बूंद के लिए तड़पता है।