शाम बन्सीवाला कन्हैया भजन

शाम बन्सीवाला कन्हैया भजन

शाम बन्सीवाला कन्हैया। मैं ना बोलूं तुजसेरे॥टेक॥
घर मेरा दूर घगरी मोरी भारी। पतली कमर लचकायरे॥१॥
सास नंनदके लाजसे मरत हूं। हमसे करत बलजोरी॥२॥
मीरा तुमसो बिगरी। चरणकमलकी उपासीरे॥३॥


सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के प्रति मीराबाई के प्रेम और उनके छल-छिद्र भरे स्वरूप के प्रति नकली रूठने का उद्गार बयां होता है। श्रीकृष्णजी का बंसीवाला कन्हैया रूप इतना मनमोहक है कि मीराबाई उनसे बोलने को तैयार नहीं, पर मन उनका ही राग गाता है। यह रूठना प्रेम की वह मधुर लाड़ है, जैसे राधारानी कभी-कभी श्रीकृष्णजी से नाराज होकर भी उनकी ओर खिंची चली जाती हैं।

मीराबाई अपने जीवन की व्यथा को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करती हैं। घर दूर है, घागरी भारी है, और कमर लचक रही है—यह संसार की जिम्मेदारियों का बोझ है, जो मन को थका देता है। सास-ननद की बातें और सामाजिक मर्यादाएं उन्हें लज्जित करती हैं, पर श्रीकृष्णजी का बलपूर्वक मन मोह लेना उनके प्रेम का प्रतीक है। जैसे कोई चंचल नटखट बालक मां से छिपकर भी उसका ध्यान खींच लेता है, वैसे ही कन्हैया मीराबाई के मन को बांधे रखते हैं।

इस सबके बीच मीराबाई का मन श्रीकृष्णजी के चरण-कमलों में ही रमता है। वह कहती हैं कि उनकी सारी बिगड़ी बातें श्रीकृष्णजी के कारण ही हैं, क्योंकि उनका प्रेम ही उन्हें संसार से विरक्त करता है।

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