गोकला के बासी भले ही आए मीरा बाई पदावली

गोकला के बासी भले ही आए मीरा बाई पदावली

गोकला के बासी भले ही आए, गोकुला के बासी
गोकला के बासी भले ही आए, गोकुला के बासी।।टेक।।
गोकल की नारि देखत, आनंद सुखरासी।
एक गावत के नांचत, एक करत हाँसी।
पीताम्बर फेटा बाँधे, अरगजा सुबासी।
गिरधर से सुनवल ठाकुर, मीराँ सी दासी।।

(गोकुल के बासी=गोकुल-निवासी श्रीकृष्ण, भले ही=बहुत अच्छा हुआ, सुखरासी=सुखों का ढेर, अरगजा=एक प्रकार का सुगन्धित पदार्थ, सुबासी=सुगन्धित, सुनवल=सुन्दर, ठाकुर=स्वामि)
 
गोकुल के निवासी श्रीकृष्ण की लीला और उनका प्रेम भक्तों के हृदय में आनंद की गहन अनुभूति उत्पन्न करता है। जब वे गोकुल की गलियों में विचरण करते हैं, तब यह केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि भक्ति और प्रेम की उस मधुर लहर है, जो प्रत्येक भक्त के मन को प्रभु की कृपा से भर देती है।

गोपियों का हर्ष, उनका नृत्य, और उनके गायन मात्र एक उत्सव नहीं, बल्कि उस आत्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति है, जहाँ भक्ति सांसारिक सीमाओं से परे जाकर ईश्वर में लीन हो जाती है। कृष्ण की छवि—पीतांबर से सुशोभित, मोर मुकुट से अलंकृत, और सुगंधित अरगजा से महकती—यह केवल बाहरी सौंदर्य नहीं, बल्कि उस दिव्य माधुर्य का प्रतीक है, जो हर हृदय को भक्ति की पराकाष्ठा तक ले जाता है।

मीराँ का समर्पण इसी भक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप है। जब प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई द्वंद्व नहीं रहता—सिर्फ ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा और समर्पण की अखंड धारा। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ साधक का समर्पण ईश्वर में पूर्णतः विलीन हो जाता है। यही आनंद का सच्चा स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में मिल जाते हैं।

बसो मोरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति सांवरि सूरति, नैणा बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजंती-माल।।
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भगत बछल गोपाल।।

फूल मंगाऊं हार बनाऊ। मालीन बनकर जाऊं॥१॥
कै गुन ले समजाऊं। राजधन कै गुन ले समाजाऊं॥२॥
गला सैली हात सुमरनी। जपत जपत घर जाऊं॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। बैठत हरिगुन गाऊं॥४॥

बड़े घर ताली लागी रे, म्हारां मन री उणारथ भागी रे॥
छालरिये म्हारो चित नहीं रे, डाबरिये कुण जाव।
गंगा जमना सूं काम नहीं रे, मैंतो जाय मिलूं दरियाव॥
हाल्यां मोल्यांसूं काम नहीं रे, सीख नहीं सिरदार।
कामदारासूं काम नहीं रे, मैं तो जाब करूं दरबार॥
काच कथीरसूं काम नहीं रे, लोहा चढ़े सिर भार।
सोना रूपासूं काम नहीं रे, म्हारे हीरांरो बौपार॥
भाग हमारो जागियो रे, भयो समंद सूं सीर।
अम्रित प्याला छांडिके, कुण पीवे कड़वो नीर॥
पीपाकूं प्रभु परचो दियो रे, दीन्हा खजाना पूर।
मीरा के प्रभु गिरघर नागर, धणी मिल्या छै हजूर॥

बन जाऊं चरणकी दासी रे, दासी मैं भई उदासी॥ध्रु०॥
और देव कोई न जाणूं। हरिबिन भई उदासी॥१॥
नहीं न्हावूं गंगा नहीं न्हावूं जमुना। नहीं न्हावूं प्रयाग कासी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमलकी प्यासी॥३॥
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