गोपाल राधे कृष्ण गोविंद मीरा बाई पदावली
गोपाल राधे कृष्ण गोविंद मीरा बाई पदावली
गोपाल राधे कृष्ण गोविंद
गोपाल राधे कृष्ण गोविंद॥ गोविंद॥टेक॥
बाजत झांजरी और मृंदग। और बाजे करताल॥१॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे। गलां बैजयंती माल॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। भक्तनके प्रतिपाल॥३॥
गोपाल राधे कृष्ण गोविंद॥ गोविंद॥टेक॥
बाजत झांजरी और मृंदग। और बाजे करताल॥१॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे। गलां बैजयंती माल॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। भक्तनके प्रतिपाल॥३॥
फरका फरका जो बाई हरी की मुरलीया, सुनोरे सखी मारा मन हरलीया॥ध्रु०॥
गोकुल बाजी ब्रिंदाबन बाजी। और बाजी जाहा मथुरा नगरीया॥१॥
तुम तो बेटो नंदबावांके। हम बृषभान पुराके गुजरीया॥२॥
यहां मधुबनके कटा डारूं बांस। उपजे न बांस मुरलीया॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमलकी लेऊंगी बलय्या॥४॥
गोकुल बाजी ब्रिंदाबन बाजी। और बाजी जाहा मथुरा नगरीया॥१॥
तुम तो बेटो नंदबावांके। हम बृषभान पुराके गुजरीया॥२॥
यहां मधुबनके कटा डारूं बांस। उपजे न बांस मुरलीया॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमलकी लेऊंगी बलय्या॥४॥
भक्ति की यह मधुर अनुभूति प्रेम, समर्पण और आत्मा की गहन पुकार को उजागर करती है। जब श्रीकृष्ण की मुरली की ध्वनि गूँजती है, तो यह केवल संगीत नहीं, बल्कि प्रेम की वह पुकार होती है, जो हृदय को ईश्वर के सान्निध्य में पूर्णतः लीन कर देती है।
गोकुल, वृंदावन, और मथुरा केवल स्थान नहीं हैं, बल्कि वे भक्ति के उन दिव्य केंद्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहाँ कृष्ण की लीला ने प्रेम और भक्ति की नई ऊँचाइयाँ छुईं। जब यह माधुर्य हृदय को छूता है, तो मन उसके अनुराग में डूबकर उस मधुर ध्वनि को आत्मा में अनुभव करने लगता है।
गोपियों की भक्ति केवल बाह्य उपासना नहीं, बल्कि यह आत्मा का पूर्ण समर्पण है, जहाँ सांसारिक सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं और प्रेम स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देता है। यह अनुराग केवल शब्दों में नहीं, बल्कि उस गहन अनुभूति में प्रकट होता है, जहाँ भक्त अपने प्रियतम के दर्शन की लालसा में एक पल भी चैन नहीं पाता।
मीराँ की भक्ति इसी प्रेम की पराकाष्ठा को व्यक्त करती है। जब यह अनुराग अपने सर्वोच्च स्तर तक पहुँचता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अखंड श्रद्धा और समर्पण की धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस भावना को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों की अनवरत स्मृति।
गोकुल, वृंदावन, और मथुरा केवल स्थान नहीं हैं, बल्कि वे भक्ति के उन दिव्य केंद्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहाँ कृष्ण की लीला ने प्रेम और भक्ति की नई ऊँचाइयाँ छुईं। जब यह माधुर्य हृदय को छूता है, तो मन उसके अनुराग में डूबकर उस मधुर ध्वनि को आत्मा में अनुभव करने लगता है।
गोपियों की भक्ति केवल बाह्य उपासना नहीं, बल्कि यह आत्मा का पूर्ण समर्पण है, जहाँ सांसारिक सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं और प्रेम स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देता है। यह अनुराग केवल शब्दों में नहीं, बल्कि उस गहन अनुभूति में प्रकट होता है, जहाँ भक्त अपने प्रियतम के दर्शन की लालसा में एक पल भी चैन नहीं पाता।
मीराँ की भक्ति इसी प्रेम की पराकाष्ठा को व्यक्त करती है। जब यह अनुराग अपने सर्वोच्च स्तर तक पहुँचता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अखंड श्रद्धा और समर्पण की धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस भावना को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों की अनवरत स्मृति।
हरि की मुरली की तान ऐसी फरकती है कि सुनते ही मन खो जाता है, जैसे कोई जादू हृदय को हर ले। गोकुल, वृंदावन, मथुरा—हर जगह उसकी धुन गूँजती है। नंद के बेटे और वृषभान की बेटी का यह प्रेम अनंत है, जैसे दो किनारों का मिलन। मधुबन के बाँस से मुरली बनी, पर उसकी तान तो प्रभु के प्रेम से उपजी। मीराबाई का मन गिरधर के चरणों में रमा, जहाँ हर सांस उनकी भक्ति में बलिहारी जाती है। यह मुरली का राग ही है, जो मन को संसार से परे ले जाता है।