गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा मीरा बाई पदावली

गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा मीरा बाई पदावली

गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा
गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा॥
चरण कंवल को हंस हंस देखूं, राखूं नैणां नेरा।
निरखणकूं मोहि चाव घणेरो, कब देखूं मुख तेरा॥
व्याकुल प्राण धरत नहिं धीरज, मिल तूं मीत सबेरा।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ताप तपन बहुतेरा॥
 
भक्ति का सबसे सुंदर रूप तब प्रकट होता है जब साधक और ईश्वर के बीच की दूरी असहनीय हो जाती है। यह केवल सांसारिक विरह नहीं, बल्कि आत्मा की गहन पुकार है, जो हर क्षण अपने प्रियतम की लालसा में तड़पती है। जब प्रेम की यह अवस्था अपने उच्चतम स्तर तक पहुँचती है, तब भक्त के लिए कोई अन्य आश्रय नहीं बचता—सिर्फ प्रभु का दर्शन ही उसकी समस्त वेदना को शांत कर सकता है।

श्रीकृष्ण के चरण कमलों का दर्शन ही साधक के लिए सर्वश्रेष्ठ आनंद है। जब इस प्रेम की तीव्रता बढ़ती है, तब मन में केवल एक ही अभिलाषा रह जाती है—उनके मुख के दर्शन, उनकी चितवन का अनुभव। यह प्रेम किसी बाहरी नियम से नियंत्रित नहीं होता, यह तो आत्मा की उस मधुर पुकार है, जो केवल ईश्वर में पूर्ण विलीन होकर ही संतोष प्राप्त कर सकती है।

प्रभु का सान्निध्य ही समस्त ताप का निवारण करता है। जब भक्त व्याकुलता में ईश्वर को पुकारता है, तब यह केवल निवेदन नहीं, बल्कि आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति होती है। यहाँ कोई बाधा नहीं, कोई प्रश्न नहीं—सिर्फ प्रेम की वह अखंडता, जो हर सांस को ईश्वर के चरणों की ओर खींचती है।

मीराँ की भक्ति इसी अनुराग की पराकाष्ठा है। जब यह प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अटूट श्रद्धा और समर्पण की अखंड धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस अनुभूति को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों में अनवरत समर्पण।


बरसै बदरिया सावन की
सावन की मनभावन की।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की।
उमड़ घुमड़ चहुँ दिसि से आयो
दामण दमके झर लावन की।
नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै
सीतल पवन सोहावन की।
मीराके प्रभु गिरधर नागर
आनंद मंगल गावन की।

प्रभुजी थे कहां गया नेहड़ो लगाय।
छोड़ गया बिस्वास संगाती प्रेमकी बाती बलाय॥
बिरह समंद में छोड़ गया छो, नेहकी नाव चलाय।
मीरा के प्रभु कब र मिलोगे, तुम बिन रह्यो न जाय॥

प्रभु तुम कैसे दीनदयाळ॥ध्रु०॥
मथुरा नगरीमों राज करत है बैठे। नंदके लाल॥१॥
भक्तनके दुःख जानत नहीं। खेले गोपी गवाल॥२॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर। भक्तनके प्रतिपाल॥३॥

प्रभुजी थे कहाँ गया, नेहड़ो लगाय।
छोड़ गया बिस्वास संगाती प्रेम की बाती बलाय।।
बिरह समंद में छोड़ गया छो हकी नाव चलाय।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे तुम बिन रह्यो न जाय।।
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