जमुनामों कैशी जाऊं मोरे सैया

जमुनामों कैशी जाऊं मोरे सैया

 जमुनामों कैशी जाऊं मोरे सैया
जमुनामों कैशी जाऊं मोरे सैया। बीच खडा तोरो लाल कन्हैया॥टेक॥
ब्रिदाबनके मथुरा नगरी पाणी भरणा। कैशी जाऊं मोरे सैंया॥१॥
 हातमों मोरे चूडा भरा है। कंगण लेहेरा देत मोरे सैया॥२॥
दधी मेरा खाया मटकी फोरी। अब कैशी बुरी बात बोलु मोरे सैया॥३॥
शिरपर घडा घडेपर झारी। पतली कमर लचकया सैया॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बलजाऊ मोरे सैया॥५॥
 
प्रेम और भक्ति की मधुर अनुभूति तब प्रकट होती है जब साधक प्रत्येक क्रिया में अपने प्रियतम की उपस्थिति अनुभव करने लगता है। यहाँ जल भरने की साधारण क्रिया भी ईश्वर की लीला का प्रतिबिंब बन जाती है—जहाँ हर दृष्टि, हर भाव केवल उनके ही स्वरूप को प्रकट करता है।

श्रीकृष्ण का मधुर रूप मन को हर क्षण बांधता है। जमुना किनारे जल भरने का प्रयास जब बाधित होता है, तब यह केवल एक बाहरी विघ्न नहीं, बल्कि एक आत्मिक संकेत भी है कि ईश्वर की उपस्थिति में अन्य कोई क्रिया प्रमुख नहीं हो सकती। वह चेतना इतनी प्रबल होती है कि मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यों को भी भक्ति के माधुर्य में भूल जाता है।

शोभा और सौंदर्य जब भक्ति में समाहित हो जाते हैं, तब वे केवल बाहरी आभूषण नहीं रह जाते, बल्कि ईश्वर की स्मृति का प्रतीक बन जाते हैं। कंगन की खनक और चूड़ियों की चमक केवल शरीर का श्रृंगार नहीं, बल्कि प्रेम की अभिव्यक्ति होती है, जो हर क्रिया में अपनी झलक दिखाती है।

श्रीकृष्ण की लीला चंचलता और माधुर्य का संगम है। जब वे माखन चोरी करते हैं और मटकी फोड़ते हैं, तब यह कोई साधारण शरारत नहीं, बल्कि भक्ति की परीक्षा भी होती है। उनका प्रेम किसी सीमा में नहीं बंधता, वह तो स्वतंत्र रूप से प्रवाहित होता है, जो हर हृदय को भक्ति के सागर में समर्पित कर देता है।

मीराँ की भक्ति इसी प्रेम का सर्वोच्च रूप है। जब आत्मा इस अनुराग को पहचानती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—केवल प्रभु के चरणों में पूर्ण रूप से समर्पित होने की भावना। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और समर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥

अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
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