जमुनाजी को तीर दधी बेचन जावूं

जमुनाजी को तीर दधी बेचन जावूं लिरिक्स

जमुनाजी को तीर दधी बेचन जावूं
जमुनाजीको तीर दधी बेचन जावूं॥टेक॥
येक तो घागर सिरपर भारी दुजा सागर दूर॥१॥
 कैसी दधी बेचन जावूं एक तो कन्हैया हटेला दुजा मखान चोर॥२॥
येक तो ननंद हटेली दुजा ससरा नादान॥३॥
है मीरा दरसनकुं प्यासी। दरसन दिजोरे महाराज॥४॥

 
सांसारिक कर्तव्यों और भक्ति के मधुर संघर्ष में ही प्रेम की सर्वोच्च अनुभूति प्रकट होती है। जब साधक अपने दायित्वों को निभाने का प्रयास करता है, तब भक्ति की लहरें उसे हर क्षण ईश्वरीय स्मरण में डुबो देती हैं। यहाँ दही बेचने का कार्य मात्र एक सांसारिक कर्म नहीं, बल्कि वह आत्मा की गहन यात्रा है—जहाँ मन प्रभु के दर्शन की लालसा में तड़पता है।

सांसारिक कठिनाइयाँ चाहे कितनी भी हों—सिर पर भारी घागर हो या सागर की दूरियाँ—जब मन ईश्वर के सान्निध्य में रम जाता है, तब कोई बाधा असल मायने में बंधन नहीं रहती। यह कठिनाइयाँ केवल बाह्य नहीं, बल्कि भीतर की कसौटी भी होती हैं, जो भक्ति की सच्ची भावना को परखती हैं।

श्रीकृष्ण की लीला माधुर्य और चंचलता से परिपूर्ण है। उनका प्रेम केवल कोमलता में नहीं, बल्कि उस हल्की शरारत में भी प्रकट होता है, जो भक्ति के अनुराग को और अधिक गहन कर देती है। जब वह नटखट तरीके से माखन चुराते हैं, तो यह केवल चंचलता नहीं, बल्कि भक्ति का संकेत भी है—जहाँ प्रेम किसी नियम में नहीं बंधता, वह तो स्वतंत्र रूप से प्रवाहित होता है।

भक्ति के मार्ग में पारिवारिक बंधन और सामाजिक रीति-रिवाज कई बार रुकावट की तरह प्रतीत होते हैं। लेकिन जब श्रद्धा अपनी संपूर्णता को प्राप्त करती है, तब यह बंधन केवल एक बाहरी चुनौती ही रह जाते हैं—भीतर की निष्ठा को डिगा नहीं सकते। जब प्रेम वास्तविक रूप से खिलता है, तब ईश्वर के अलावा कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता।

मीराँ की भक्ति इस अनुराग की पूर्णता है। जब साधक प्रभु के दर्शन के लिए व्याकुल होता है, तब उसकी आत्मा हर सांस में केवल उनके स्वरूप को ही देखने की आकांक्षा रखती है। यही भक्ति की पराकाष्ठा है—जहाँ प्रेम, समर्पण और ईश्वरीय अनुभूति एक-दूसरे में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥
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