चालो सखी मारो देखाडूं
चालो सखी मारो देखाडूं
चालो सखी मारो देखाडूं
चालो सखी मारो देखाडूं। बृंदावनमां फरतोरे॥टेक॥
नखशीखसुधी हीरानें मोती। नव नव शृंगार धरतोरे॥१॥
पांपण पाध कलंकी तोरे। शिरपर मुगुट धरतोरे॥२॥
चालो सखी मारो देखाडूं। बृंदावनमां फरतोरे॥टेक॥
नखशीखसुधी हीरानें मोती। नव नव शृंगार धरतोरे॥१॥
पांपण पाध कलंकी तोरे। शिरपर मुगुट धरतोरे॥२॥
धेनु चरावे ने वेणू बजावे। मन माराने हरतोरे॥३॥
रुपनें संभारुं के गुणवे संभारु। जीव राग छोडमां गमतोरे॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। सामळियो कुब्जाने वरतोरे॥५॥
रुपनें संभारुं के गुणवे संभारु। जीव राग छोडमां गमतोरे॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। सामळियो कुब्जाने वरतोरे॥५॥
उनका नख-शिख सौंदर्य केवल आभूषणों से नहीं, बल्कि उनकी दिव्य आभा से प्रकाशित होता है। जब मोर मुकुट उनकी अलौकिक छवि को और अधिक सुशोभित करता है, जब मुरली की ध्वनि प्रेम का मधुर संगीत बनकर गूंजती है, तब यह केवल एक रूप का अनुभव नहीं रह जाता—बल्कि यह सम्पूर्ण आत्मा का ईश्वर के प्रेम में विलीन होने का संकेत होता है।
धेनु चराते हुए और मुरली बजाते हुए उनका स्वरूप केवल बाहरी लीला नहीं, बल्कि यह प्रेम की वह सहज अनुभूति है, जो भक्ति को माधुर्य की पराकाष्ठा तक पहुंचा देती है। जब यह प्रेम अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई सांसारिक लालसा नहीं रहती—सिर्फ उस अनुराग की अखंडता बनी रहती है, जहाँ हर दृष्टि कृष्ण के गुणों में समाहित हो जाती है।
मीराँ का समर्पण इसी भावना की अभिव्यक्ति है। जब प्रेम पूर्णतः ईश्वर में रम जाता है, तब वहाँ कोई अन्य सत्य नहीं रहता—सिर्फ भक्ति की वह मधुर धारा रह जाती है, जिसमें साधक अपनी समस्त पहचान को त्यागकर दिव्यता में विलीन हो जाता है। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं।
हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।