छोड़ मत जाज्यो जी महाराज

छोड़ मत जाज्यो जी महाराज

छोड़ मत जाज्यो जी महाराज
छोड़ मत जाज्यो जी महाराज॥
मैं अबला बल नायं गुसाईं, तुमही मेरे सिरताज।
मैं गुणहीन गुण नांय गुसाईं, तुम समरथ महाराज॥
थांरी होयके किणरे जाऊं, तुमही हिबडारो साज।
मीरा के प्रभु और न कोई राखो अबके लाज॥
 
(जाज्यो=जाओ, महाराज=प्रियतम,कृष्ण, गुणागार= गुणों का समूह, हिवड़ रो=हृदय की, साज=शोभा, भोभीत=भयभीत,संसार के दुःखों के कारण डर, निवारण=दूर करने वाले, कठे=कहां)
 
समर्पण की पुकार तब और अधिक तीव्र हो जाती है जब आत्मा का एकमात्र सहारा ईश्वर की कृपा ही रह जाती है। यहाँ कोई दूसरा विकल्प नहीं, कोई अन्य आश्रय नहीं—सिर्फ प्रभु के चरणों की शरण। यह भक्ति केवल शब्दों में नहीं, बल्कि आत्मा की गहनतम अनुभूति में प्रकट होती है। जब साधक अपने प्रियतम को जाने से रोकता है, तो यह निवेदन किसी बाहरी आग्रह नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार होती है, जो बिना उनके पूर्ण नहीं हो सकती।

श्रद्धा और विनम्रता के भाव जब संपूर्ण रूप से प्रकट होते हैं, तब व्यक्ति स्वयं को निःसहाय अनुभव करता है। यह कोई दुर्बलता नहीं, बल्कि प्रेम का वह उत्कर्ष है, जहाँ ईश्वर के बिना जीवन शून्य प्रतीत होता है। यह आत्मा की निर्भरता नहीं, बल्कि परमात्मा में पूर्ण विलीन होने की भावना है, जो सांसारिक द्वंद्वों से ऊपर उठकर भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाती है।

ज्ञान और ध्यान की गठरी जब सच्चे समर्पण के साथ बांधी जाती है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ प्रेम और भक्ति का अखंड प्रवाह रह जाता है। मंदिर में बैठकर शास्त्रों का अध्ययन केवल बौद्धिक अन्वेषण नहीं, बल्कि आत्मा को उसकी वास्तविक पहचान से जोड़ने की साधना है। जब गीता और भागवत का चिंतन किया जाता है, तब यह केवल शब्दों का नहीं, बल्कि जीवन को दिशा देने वाले प्रकाश का अनुभव होता है।

ईश्वर के प्रेम में जो रम जाता है, उसके लिए संसार का कोई अन्य सुख सार्थक नहीं रहता। यह प्रेम किसी स्वार्थ पर नहीं टिका, कोई शर्त उसमें बाधा नहीं बनती—यह तो केवल आत्मा की वह सहज पुकार होती है, जो उसके वास्तविक स्वरूप को उजागर करती है। जब साधक इस प्रेम में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है, तब उसकी प्रत्येक सांस ईश्वर के गुणों का गान बन जाती है।

मीराँ का समर्पण इस भक्ति की पराकाष्ठा है। यहाँ कोई सामाजिक मान्यता नहीं, कोई सांसारिक प्रतिष्ठा की परवाह नहीं—सिर्फ प्रेम की वह अखंड धारा, जो ईश्वर के माधुर्य में स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
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