कुंजबनमों गोपाल राधे मीरा बाई पदावली

कुंजबनमों गोपाल राधे मीरा बाई पदावली

 कुंजबनमों गोपाल राधे
कुंजबनमों गोपाल राधे॥टेक॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे। नीरखत शाम तमाल॥१॥
ग्वालबाल रुचित चारु मंडला। वाजत बनसी रसाळ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनपर मन चिरकाल॥३॥
कुंजबनमों गोपाल राधे॥ध्रु०॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे। नीरखत शाम तमाल॥१॥
ग्वालबाल रुचित चारु मंडला। वाजत बनसी रसाळ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनपर मन चिरकाल॥३॥  
 
 राधा के साथ कुंज-वन में विचरते गोपाल का सौंदर्य मन को मोह लेता है। उनका मोर-मुकुट और पीतांबर ऐसा शोभता है, जैसे तमाल वृक्ष की छाया में श्याम की छवि और निखर उठे। ग्वाल-बालों के साथ उनकी मधुर मंडली और बंसी की रसभरी तान हृदय को रस में डुबो देती है।

मीरा का मन उनके चरणों में अनंत काल तक रम गया है, मानो कोई तितली फूल पर सदा के लिए ठहर जाए। यह भक्ति का वह रंग है, जो प्रभु के दर्शन, उनकी लीला, और उनके प्रेम में डूबकर आत्मा को शाश्वत सुख देता है। हर सांस में बस वही गोपाल बसते हैं, जिनके बिना जीवन अधूरा है।
 
मोहन आवनकी साई किजोरे । आवनकी मन भावनकी ॥ कोई० ॥ध्रु०॥
आप न आवे पतिया न भेजे | ए बात ललचावनकी ॥को० ॥१॥
बिन दरशन व्याकुल भई सजनी । जैशी बिजलीयां श्रावनकी ॥ को० ॥२॥
क्या करूं शक्ति जाऊं मोरी सजनी । पांख होवे तो उडजावनकी ॥ को० ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर | इच्छा लगी हरी बतलावनकी ॥ को० ॥४॥

मत डारो पिचकारी । मैं सगरी भिजगई सारी ॥ध्रु०॥
जीन डारे सो सनमुख रहायो । नहीं तो मैं देउंगी गारी ॥ मत० ॥१॥
भर पिचकरी मेरे मुखपर डारी । भीजगई तन सारी ॥ मत० ॥२॥
लाल गुलाल उडावन लागे । मैं तो मनमें बिचारी ॥ मत० ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरनकमल बलहारी ॥ मत० ॥४॥

राधाजी को लागे बिंद्रावनमें नीको ॥ध्रु०॥
ब्रिंदाबनमें तुलसीको वडलो जाको पानचरीको ॥ रा० ॥१॥
ब्रिंदावनमें धेनु बहोत है भोजन दूध दहींको ॥ रा० ॥२॥
ब्रिंदावनमें रास रची है दरशन कृष्णजीको ॥ रा० ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर हरिबिना सब रंग फिको ॥ रा० ॥४॥
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