पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे लिरिक्स

पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे

पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥
(णाच्या=नाचना, हाँसां=हंसी-हंसी में, चरणमां= चरणों पर, अमरित=अमृत)

प्रेम में डूबा मन बंधनों से मुक्त होकर नाच उठता है, जैसे पायल की झंकार के साथ हर कदम प्रिय के चरणों की ओर बढ़ता हो। यह नृत्य केवल देह का नहीं, आत्मा का समर्पण है, जहाँ सारा संसार भुलाकर केवल प्रिय की भक्ति में लीन हुआ जाता है। यह समर्पण इतना गहरा है कि स्वयं को उस अनन्त सत्ता का दास मान लेना ही जीवन का सत्य बन जाता है।

लोक-लाज, समाज की टीका-टिप्पणी—ये सब उस हृदय के सामने तुच्छ हैं, जो प्रिय के प्रेम में खोया हो। लोग चाहे पागलपन कहें या कुल की मर्यादा भंग होने का ताना दें, प्रेमी का मन इन बातों से विचलित नहीं होता। वह तो केवल प्रिय की राह पर चलता है, जहाँ हर कदम आनंद और मुक्ति की ओर ले जाता है।

यह प्रेम इतना बलशाली है कि विष भी अमृत बन जाता है। जैसे मीरा ने हँसते-हँसते विष का प्याला पी लिया, वैसे ही सच्चा प्रेमी हर कष्ट को प्रिय की कृपा मानकर ग्रहण करता है। यह हँसी दुख को चुनौती है, जो कहती है कि प्रेम की शक्ति के आगे कोई पीड़ा टिक नहीं सकती।

अंत में, यह प्रेम ही प्रिय तक पहुँचने का सहज मार्ग है। वह अविनाशी सत्ता, जो हृदय में बसती है, प्रेम की इस भक्ति में सरलता से मिल जाती है। यह मिलन केवल बाहरी नहीं, बल्कि आत्मा का उस परम सत्य से एकाकार होना है, जहाँ कोई द्वैत नहीं, केवल प्रेम का असीम सागर है।
 
नातो नामको जी म्हांसूं तनक न तोड्यो जाय॥
पानां ज्यूं पीली पड़ी रे, लोग कहैं पिंड रोग।
छाने लांघण म्हैं किया रे, राम मिलण के जोग॥
बाबल बैद बुलाइया रे, पकड़ दिखाई म्हांरी बांह।
मूरख बैद मरम नहिं जाणे, कसक कलेजे मांह॥
जा बैदां, घर आपणे रे, म्हांरो नांव न लेय।
मैं तो दाझी बिरहकी रे, तू काहेकूं दारू देय॥
मांस गल गल छीजिया रे, करक रह्या गल आहि।
आंगलिया री मूदड़ी (म्हारे) आवण लागी बांहि॥
रह रह पापी पपीहडा रे,पिवको नाम न लेय।
जै कोई बिरहण साम्हले तो, पिव कारण जिव देय॥
खिण मंदिर खिण आंगणे रे, खिण खिण ठाड़ी होय।
घायल ज्यूं घूमूं खड़ी, म्हारी बिथा न बूझै कोय॥
काढ़ कलेजो मैं धरू रे, कागा तू ले जाय।
ज्यां देसां म्हारो पिव बसै रे, वे देखै तू खाय॥
म्हांरे नातो नांवको रे, और न नातो कोय।
मीरा ब्याकुल बिरहणी रे, (हरि) दरसण दीजो मोय॥

नाथ तुम जानतहो सब घटकी, मीरा भक्ति करे प्रगटकी॥ध्रु०॥
ध्यान धरी प्रभु मीरा संभारे पूजा करे अट पटकी।
शालिग्रामकूं चंदन चढत है भाल तिलक बिच बिंदकी॥१॥
राम मंदिरमें नाचे ताल बजावे चपटी।
पाऊमें नेपुर रुमझुम बाजे। लाज संभार गुंगटकी॥२॥
झेर कटोरा राणाजिये भेज्या संत संगत मीरा अटकी।
ले चरणामृत मिराये पिधुं होगइे अमृत बटकी॥३॥
सुरत डोरी पर मीरा नाचे शिरपें घडा उपर मटकी।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर सुरति लगी जै श्रीनटकी॥४॥
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