(चितारयाँ=याद किया, सोवूँ छी=सोती थी, दाध्या= जला हुआ, लूण=नमक, दाध्या ऊपर लूण लगायाँ= जले पर नमक लगाना,वेदना को और अधिक बढ़ाना, करवत=आरा, सारयाँ=चला दिया, कंठणा सारयाँ=खूब चिल्लाता रहा, धारयाँ=लगा दिया)
--------------------------- पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे। मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे। लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥ विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे। 'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥
पतीया मैं कैशी लीखूं, लीखये न जातरे॥ध्रु०॥ कलम धरत मेरा कर कांपत। नयनमों रड छायो॥१॥ हमारी बीपत उद्धव देखी जात है। हरीसो कहूं वो जानत है॥२॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल रहो छाये॥३॥
पपइया रे, पिव की वाणि न बोल। सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़॥ चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण। पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण॥ थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज। चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज॥ प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय। जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय॥ मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय। बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय॥
पानी में मीन प्यासी, मोहे सुन सुन आवत हांसी॥ध्रु०॥ आत्मज्ञान बिन नर भटकत है। कहां मथुरा काशी॥१॥ भवसागर सब हार भरा है। धुंडत फिरत उदासी॥२॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। सहज मिळे अविनाशी॥३॥