पपइया म्हारो कबह रो बैर चितारयाँ

पपइया म्हारो कबह रो बैर चितारयाँ

पपइया म्हारो कबह रो बैर चितारयाँ
पपइया म्हारो कबह रो बैर चितारयाँ।।टेक।।
म्हा सोवूं छी अपणे भवण माँ पियु पियु करताँ पुकारयाँ।
दाध्या ऊपर लूण लगायाँ, हिवड़ो करवत सारयाँ।
ऊभाँ बेठयाँ बिरछरी डाली, बोला कंठणा सारयाँ।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, हरि चरणां चित धारयाँ।।

(चितारयाँ=याद किया, सोवूँ छी=सोती थी, दाध्या= जला हुआ, लूण=नमक, दाध्या ऊपर लूण लगायाँ= जले पर नमक लगाना,वेदना को और अधिक बढ़ाना, करवत=आरा, सारयाँ=चला दिया, कंठणा सारयाँ=खूब चिल्लाता रहा, धारयाँ=लगा दिया)
 
प्रिय की याद में मन व्याकुल हो उठता है, जैसे कोई पपीहा रात-दिन पुकारता हो। यह पुकार केवल शब्द नहीं, हृदय की गहरी तड़प है, जो प्रेम और विरह की आग में तपता है। रात को जब नींद आती है, तब भी वह स्वप्न में आकर पुकारता है, मानो आत्मा को जगाकर कह रहा हो कि सच्चा प्रेम विश्राम नहीं जानता। यह तड़प ऐसी है, जैसे जलते हुए घाव पर नमक छिड़क दिया जाए, या हृदय पर करवट चला दी जाए।

विरह की यह वेदना केवल पीड़ा नहीं, बल्कि प्रेम की गहराई को उजागर करती है। जैसे वृक्ष की डाल पर बैठा पंछी अपनी मधुर पुकार से सृष्टि को प्रेम का सन्देश देता है, वैसे ही यह मन हर पल प्रिय के चरणों में लीन होने को आतुर है। प्रेम में डूबा मन संसार की माया से परे, केवल उस अनन्त सत्य की खोज में भटकता है। यह खोज ही जीवन का सार है—प्रिय के बिना अधूरापन और उसके चरणों में पूर्णता।

जैसे मीरा का हृदय गिरधर के प्रति समर्पित था, वैसे ही सच्चा प्रेमी अपने प्रिय के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता है। यह निष्ठा केवल भावना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक मार्ग है, जो मन को संसार के बंधनों से मुक्त कर परम सत्य तक ले जाता है। प्रेम का यह रास्ता कठिन है, पर यही जीवन को अर्थ देता है।
 
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥

पतीया मैं कैशी लीखूं, लीखये न जातरे॥ध्रु०॥
कलम धरत मेरा कर कांपत। नयनमों रड छायो॥१॥
हमारी बीपत उद्धव देखी जात है। हरीसो कहूं वो जानत है॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल रहो छाये॥३॥

पपइया रे, पिव की वाणि न बोल।
सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़॥
चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण॥
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज।
चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज॥
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय।
जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय॥
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय॥

पानी में मीन प्यासी, मोहे सुन सुन आवत हांसी॥ध्रु०॥
आत्मज्ञान बिन नर भटकत है। कहां मथुरा काशी॥१॥
भवसागर सब हार भरा है। धुंडत फिरत उदासी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। सहज मिळे अविनाशी॥३॥
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