जल भरन कैशी जाऊं रे
जल भरन कैशी जाऊं रे
जल भरन कैशी जाऊं रे
जल भरन कैशी जाऊं रे। जशोदा जल भरन॥टेक॥
वाटेने घाटे पाणी मागे मारग मैं कैशी पाऊं॥१॥
जल भरन कैशी जाऊं रे। जशोदा जल भरन॥टेक॥
वाटेने घाटे पाणी मागे मारग मैं कैशी पाऊं॥१॥
आलीकोर गंगा पलीकोर जमुना। बिचमें सरस्वतीमें नहावूं॥२॥
ब्रिंदावनमें रास रच्चा है। नृत्य करत मन भावूं॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। हेते हरिगुण गाऊं॥४॥
ब्रिंदावनमें रास रच्चा है। नृत्य करत मन भावूं॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। हेते हरिगुण गाऊं॥४॥
तीर्थों का स्मरण केवल स्थानों की पहचान नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि का संकेत है। जब साधक गंगा, जमुना, और सरस्वती के संग स्नान करने की अभिलाषा करता है, तो यह केवल जल में स्नान नहीं, बल्कि आंतरिक परिष्करण की भावना है। यह वह पवित्रता है, जो उसे हर सांसारिक मोह से ऊपर उठाकर ईश्वरीय प्रेम में पूर्ण रूप से तल्लीन कर देती है।
भक्ति का चरम आनंद श्रीकृष्ण के रास में व्यक्त होता है। यह केवल नृत्य नहीं, बल्कि प्रेम की वह मधुर अभिव्यक्ति है, जहाँ आत्मा स्वयं को परमात्मा के आनंद में समर्पित कर देती है। जब साधक इस नृत्य में रम जाता है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—केवल प्रेम और भक्ति की अखंड धारा ही शेष रह जाती है।
मीराँ की भक्ति इसी प्रेम की पराकाष्ठा है। जब प्रेम संपूर्णता को प्राप्त करता है, तब उसमें कोई द्वंद्व नहीं, कोई संशय नहीं—केवल ईश्वरीय गुणों का गान और उनके प्रति आत्मा का अखंड समर्पण होता है। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, समर्पण और ईश्वरीय अनुभूति एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं।
हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
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तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
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उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
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अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥