छोडो चुनरया छोडो मनमोहन
छोडो चुनरया छोडो मनमोहन
छोडो चुनरया छोडो मनमोहन
छोडो चुनरया छोडो मनमोहन मनमों बिच्यारो॥टेक॥
नंदाजीके लाल। संग चले गोपाल धेनु चरत चपल।
बीन बाजे रसाल। बंद छोडो॥१॥
काना मागत है दान। गोपी भये रानोरान।
सुनो उनका ग्यान। घबरगया उनका प्रान।
चिर छोडो॥२॥
मीरा कहे मुरारी। लाज रखो मेरी।
पग लागो तोरी। अब तुम बिहारी।
चिर छोडो॥३॥
भक्ति का यह मधुर स्वरूप प्रेम और आत्मसमर्पण की गहराइयों को उजागर करता है। जब मन पूर्णतः कृष्ण में तल्लीन हो जाता है, तब सांसारिक बंधन स्वतः ही शिथिल पड़ जाते हैं। यह भक्ति किसी सीमित नियम में नहीं बंधती, बल्कि यह प्रेम का वह अटूट प्रवाह है, जहाँ आत्मा अपनी समस्त पहचान को त्यागकर ईश्वर में विलीन हो जाती है।नंदाजीके लाल। संग चले गोपाल धेनु चरत चपल।
बीन बाजे रसाल। बंद छोडो॥१॥
काना मागत है दान। गोपी भये रानोरान।
सुनो उनका ग्यान। घबरगया उनका प्रान।
चिर छोडो॥२॥
मीरा कहे मुरारी। लाज रखो मेरी।
पग लागो तोरी। अब तुम बिहारी।
चिर छोडो॥३॥
श्रीकृष्ण का दिव्य रूप और उनकी मुरली की मधुर ध्वनि भक्त के हृदय को समस्त चिंताओं से मुक्त कर देती है। उनके चरणों में समर्पण मात्र एक क्रिया नहीं, बल्कि यह आत्मा की गहन पुकार है—जो हर सांस में ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा को प्रकट करती है। जब गोपियाँ उनके सम्मुख आकर अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करती हैं, तब यह केवल अनुराग नहीं, बल्कि भक्ति की वह पराकाष्ठा होती है, जहाँ मनुष्य सांसारिक नियमों से मुक्त होकर ईश्वर की सच्ची अनुभूति करता है।
भक्ति में यह विश्वास आवश्यक है कि ईश्वर अपनी कृपा से भक्त की प्रत्येक पुकार को सुनते हैं। जब मीराँ श्रीकृष्ण से अपनी लाज की रक्षा का निवेदन करती हैं, तब यह केवल एक शाब्दिक प्रार्थना नहीं, बल्कि प्रेम की गहनतम पुकार होती है—जहाँ आत्मा को केवल अपने प्रियतम के चरणों में आश्रय मिलता है। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और समर्पण एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।
हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥