जगमाँ जीवणा थोड़ा कुणे लयां भवसार

जगमाँ जीवणा थोड़ा कुणे लयां भवसार

जगमाँ जीवणा थोड़ा कुणे लयां भवसार
जगमाँ जीवणा थोड़ा कुणे लयां भवसार।।टेक।।
मात पिता जग जन्म दियां री, करम दियां करतार।
खायाँ खरचाँ जीवण जावाँ, कोई कर्या उपकार। 
 साधो संगत हरिगुण गास्या और णा म्हारी लार।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, थें बल उतर्या पार।।

(जगमाँ=जग में, कुणे=किस लिए, भवसागर= संसार का बोध,मोह-ममता आदि का अनुराग, करम=भाग्य, करतार=ईश्वर)
 
संसार में जीवन एक क्षणभंगुर अनुभूति है—जिसमें जन्म और कर्म तो निर्धारित होते हैं, परंतु इसका अंतिम उद्देश्य क्या है, यह व्यक्ति की दृष्टि और भावना पर निर्भर करता है। जन्म माता-पिता देते हैं, लेकिन जीवन का वास्तविक स्वरूप ईश्वर की इच्छा से आकार लेता है। इस जगत की स्थायित्वहीनता यही संकेत देती है कि कोई भी सांसारिक वस्तु परम सत्य नहीं है—यह सब नश्वर है, और मोक्ष ही आत्मा की परम यात्रा है।

सांसारिक जीवन केवल उपभोग और व्यय तक सीमित नहीं होता। यदि यह केवल खाने-पीने और खर्च करने तक ही रह जाए, तो इसमें कोई सार नहीं रहेगा। व्यक्ति का धर्म केवल स्वयं के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी होता है—क्योंकि सेवा और उपकार ही वह कर्म हैं, जो आत्मा को ऊँचाई तक ले जाते हैं। जो केवल अपने लिए जीता है, वह इस संसार में आता तो है, परंतु उसका जीवन किसी अर्थ को प्राप्त नहीं करता।

साधु संगति और ईश्वर के गुणों का गान ही वह मार्ग है, जो आत्मा को सांसारिक मोह से ऊपर उठाता है। यह केवल शब्दों का उच्चारण नहीं, बल्कि वह आत्मिक अनुभूति है, जिससे मनुष्य परमात्मा के निकटतम स्तर तक पहुँचता है। जब भक्ति शुद्ध हो जाती है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता, कोई अन्य लालसा नहीं रह जाती—सिर्फ ईश्वर के प्रेम में डूब जाने की भावना शेष रह जाती है।

मीराँ की भक्ति इसी सत्य को व्यक्त करती है। जब यह प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब व्यक्ति केवल ईश्वर की कृपा से भवसागर पार करता है—उसका कोई व्यक्तिगत प्रयास नहीं, कोई सांसारिक उपलब्धि नहीं। यह परम समर्पण की अवस्था है, जहाँ आत्मा उस दिव्यता में पूर्ण रूप से विलीन हो जाती है। यही जीवन का सर्वोच्च अर्थ है—जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण परमात्मा में समाहित हो जाते हैं।

हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
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