जोगिया से प्रीति कियां दुख होई
जोगिया से प्रीति कियां दुख होई
जोगिया से प्रीति कियां दुख, होई
जोगिया से प्रीति कियां दुख, होई।।टेक।।
प्रीत कियां सुख ना मोरी सजनी, जोगी मित न कोइ।
रात दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलियां बिनि मोइ।
जोगिया से प्रीति कियां दुख, होई।।टेक।।
प्रीत कियां सुख ना मोरी सजनी, जोगी मित न कोइ।
रात दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलियां बिनि मोइ।
ऐसी सूरत या जग माहीं फेरि न देखी सोइ।
मीरां रे प्रभु कबरे मिलोगे, मिलियां आणद होइ।।
(मित=मित्र,वफादार, आणद=आनन्द)
मीरां रे प्रभु कबरे मिलोगे, मिलियां आणद होइ।।
(मित=मित्र,वफादार, आणद=आनन्द)
"जोगिया से प्रीति कियां दुख, होई" में मीरा ने अपने प्रिय, कृष्ण, के प्रति अपने अनन्य प्रेम और उससे जुड़ी दुखद स्थितियों को व्यक्त किया है। इस पद में ये दिखाया गया है कि उनकी प्रेम की अनुभूति में कितनी गहराई है। मीरा कहती हैं कि जब वो अपने प्रिय जोगी (कृष्ण) से दूर होती हैं, तो उन्हें कितना दुख होता है।
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
ईश्वर की स्तुति में नृत्य करना आत्मा की स्वतंत्रता का एक रूप है। जब व्यक्ति परमात्मा की महिमा का गुणगान करता है, तो उसका चित्त हल्का हो जाता है, मन की गांठें खुलने लगती हैं और भक्ति में डूबकर उसका अस्तित्व एक दिव्य लय में प्रवाहित होता है। यह केवल कंठ से उच्चारित शब्द नहीं हैं, बल्कि हृदय के गहरे कोनों से उमड़ती प्रेम-धारा है।
मंदिरों में बैठकर शास्त्रों का अध्ययन केवल ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि आत्मा को उसकी वास्तविक पहचान से जोड़ने की साधना है। गीता और भागवत जैसे ग्रंथों का चिंतन जीवन को दिशा देने वाला प्रकाश है। इन शास्त्रों के अध्ययन से व्यक्ति को आत्मबोध प्राप्त होता है और वह समझता है कि धर्म केवल बाह्य अनुष्ठान नहीं, बल्कि अंतःकरण की शुद्धता और जीवन की निर्मलता है।
ज्ञान और ध्यान की गठरी बांधकर परमात्मा के संग चलना व्यक्ति का सबसे बड़ा आत्मिक संकल्प है। जब साधक ज्ञान के सहारे आगे बढ़ता है, तो वह मोह-माया से ऊपर उठकर सत्य के समीप पहुँचता है। ईश्वर के प्रति समर्पण केवल बाह्य क्रिया नहीं, बल्कि यह भीतर से पिघलकर उस दिव्यता में स्वयं को विलीन कर देना है।
प्रेम ही परमात्मा तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग है। भक्ति जब निष्कपट प्रेम का रूप लेती है, तो साधक और ईश्वर के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती। यह प्रेम रस जीवन के हर क्षण को मधुर बना देता है और आत्मा को अमृत का अनुभव कराता है। जब व्यक्ति इस प्रेम में सराबोर होता है, तो उसे ईश्वर के अतिरिक्त कोई और वस्तु आकर्षित नहीं करती।
यह मार्ग केवल भक्ति का नहीं, बल्कि पूर्ण आत्मसमर्पण का है, जहाँ साधक स्वयं को परमात्मा की चेतना में विलीन कर देता है। यही जीवन का परम अर्थ है—ईश्वर के गुणों में रम जाना, धर्म के सत्य को आत्मसात करना और प्रेम के अमृत से अपना अस्तित्व सिंचित करना।
मंदिरों में बैठकर शास्त्रों का अध्ययन केवल ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि आत्मा को उसकी वास्तविक पहचान से जोड़ने की साधना है। गीता और भागवत जैसे ग्रंथों का चिंतन जीवन को दिशा देने वाला प्रकाश है। इन शास्त्रों के अध्ययन से व्यक्ति को आत्मबोध प्राप्त होता है और वह समझता है कि धर्म केवल बाह्य अनुष्ठान नहीं, बल्कि अंतःकरण की शुद्धता और जीवन की निर्मलता है।
ज्ञान और ध्यान की गठरी बांधकर परमात्मा के संग चलना व्यक्ति का सबसे बड़ा आत्मिक संकल्प है। जब साधक ज्ञान के सहारे आगे बढ़ता है, तो वह मोह-माया से ऊपर उठकर सत्य के समीप पहुँचता है। ईश्वर के प्रति समर्पण केवल बाह्य क्रिया नहीं, बल्कि यह भीतर से पिघलकर उस दिव्यता में स्वयं को विलीन कर देना है।
प्रेम ही परमात्मा तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग है। भक्ति जब निष्कपट प्रेम का रूप लेती है, तो साधक और ईश्वर के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती। यह प्रेम रस जीवन के हर क्षण को मधुर बना देता है और आत्मा को अमृत का अनुभव कराता है। जब व्यक्ति इस प्रेम में सराबोर होता है, तो उसे ईश्वर के अतिरिक्त कोई और वस्तु आकर्षित नहीं करती।
यह मार्ग केवल भक्ति का नहीं, बल्कि पूर्ण आत्मसमर्पण का है, जहाँ साधक स्वयं को परमात्मा की चेतना में विलीन कर देता है। यही जीवन का परम अर्थ है—ईश्वर के गुणों में रम जाना, धर्म के सत्य को आत्मसात करना और प्रेम के अमृत से अपना अस्तित्व सिंचित करना।