जोगियारी प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल लिरिक्स
जोगियारी प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल
जोगियारी प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल।।टेक।।
हित मिल बात बणावत मीठी, पीछै जावत भूल।
तोड़त जेज करत नहिं सजनी, जैसे चैमेली के फूल।
मीरां कहै प्रभु तुमरे दरस बिन, लगत हिवड़ा में सूल।।
(जोगियारी=जोगी की, प्रीतड़ी=प्रीती, दुखड़ा रो= दुख का, मूल=जड़,कारण, जेज=देर, सूल =काँटे)
यह पद मीराबाई की भक्ति की उस खूबसूरत पीड़ा का बयाँ करता है, जो सांसारिक संबंधों की क्षणभंगुरता और अस्थिरता में निहित है। पहली पंक्ति में कहा गया है कि एक तरह का “जोगियारी प्रीतड़ी”—यानी उस तरह का प्रेम जो निर्दयी योगी की भांति निरर्थक लगने लगती है—वहीं दुख का मूल बन जाता है। अगली पंक्ति में यह बताया गया है कि हम अक्सर आपसी हित के आधार पर मीठी-मीठी बातों का आदान-प्रदान करते हैं, जो कुछ समय बाद भूल जाते हैं और स्थायी नहीं रहते। तीसरी पंक्ति में सजनी की तुलना चैमेली के फूल से की गई है, जिन्हें तोड़ते ही उनकी खुशबू खो जाती है; यानी जिस प्रकार फूलों की ताजगी अक्षुण्ण नहीं रहती, वैसे ही प्रेम के नाजुक अहसासों की भी अस्थिरता पर प्रकाश डाला गया है। अंततः, मीराबाई प्रभु से यह कहती हैं कि उनके दरसन के बिना हृदय में एक गहरी पीड़ा और आघात का अनुभव होता है। इस प्रकार, यह पद हमारे सामने एक गहरी सीख लेकर आता है कि असली शांति और संतोष केवल दिव्य प्रेम के अनुभव से ही प्राप्त हो सकते हैं, जबकि सांसारिक मोह-माया हमेशा कुछ न कुछ अधूरी और क्षणभंगुर रह जाती है।
हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
यह पद मीराबाई की कृष्ण-भक्ति की गहराई और उनके प्रेम-समर्पण को दर्शाता है। मीराबाई कहती हैं कि वे सांवरे (श्रीकृष्ण) के रंग में पूरी तरह रंग चुकी हैं। वे लोक-लाज की परवाह किए बिना, पगों में घुंघरू बांधकर नृत्य करती हैं—जो उनके आत्मिक आनंद और भक्ति की पराकाष्ठा को प्रकट करता है।
अगली पंक्तियों में, वे बताती हैं कि उन्होंने कुमति (दुष्ट विचारों) को त्यागकर संतों की संगति अपनाई है, जिससे उनकी भक्ति और आस्था सच्चे रूप में प्रकट हुई है। वे दिन-रात भगवान के गुणों का गान करती हैं और इस संसार की असारता से स्वयं को बचाए रखती हैं। उनके लिए श्रीकृष्ण ही एकमात्र सत्य हैं, और उनके बिना यह संसार फीका और तुच्छ प्रतीत होता है।
अंत में, मीराबाई कहती हैं कि उन्होंने श्रीगिरधर लाल (श्रीकृष्ण) की भक्ति को रसपूर्ण और सजीव रूप में अनुभव किया है। यह पद भक्तियोग की उच्चतम अवस्था को दर्शाता है, जहाँ प्रेम और भक्ति का मिलन आत्मा को दिव्यता से जोड़ देता है।