झूलत राधा संग गिरिधर झूलत राधा संग
झूलत राधा संग। गिरिधर झूलत राधा संग॥टेक॥
अबिर गुलालकी धूम मचाई। भर पिचकारी रंग॥१॥
लाल भई बिंद्रावन जमुना। केशर चूवत रंग॥२॥नाचत ताल आधार सुरभर। धिमी धिमी बाजे मृदंग॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमलकू दंग॥४॥
--------------------------- हरि गुन गावत नाचूंगी॥ आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥ ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥ मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥
तो सांवरे के रंग राची। साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।। गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची। गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।। उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची। मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥ आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥ ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥ बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत। मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥ माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई। साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥ सतं देख दौड आई, जगत देख रोई। प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥ मारग में तारग मिले, संत राम दोई। संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥ अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई। राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥ अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई। दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
अब तौ हरी नाम लौ लागी। सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्यो बैरागीं॥ कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी। मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥ मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव। स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥ पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै। गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥
बंसीवारा आज्यो म्हारे देस। सांवरी सुरत वारी बेस।। ॐ-ॐ कर गया जी, कर गया कौल अनेक। गिणता-गिणता घस गई म्हारी आंगलिया री रेख।। मैं बैरागिण आदिकी जी थांरे म्हारे कदको सनेस। बिन पाणी बिन साबुण जी, होय गई धोय सफेद।। जोगण होय जंगल सब हेरूं छोड़ा ना कुछ सैस। तेरी सुरत के कारणे जी म्हे धर लिया भगवां भेस।। मोर-मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस। मीरा के प्रभु गिरधर मिलियां दूनो बढ़ै सनेस।।
अरज करे छे मीरा रोकडी। उभी उभी अरज॥ध्रु०॥ माणिगर स्वामी मारे मंदिर पाधारो सेवा करूं दिनरातडी॥१॥ फूलनारे तुरा ने फूलनारे गजरे फूलना ते हार फूल पांखडी॥२॥ फूलनी ते गादी रे फूलना तकीया फूलनी ते पाथरी पीछोडी॥३॥ पय पक्कानु मीठाई न मेवा सेवैया न सुंदर दहीडी॥४॥ लवींग सोपारी ने ऐलची तजवाला काथा चुनानी पानबीडी॥५॥ सेज बिछावूं ने पासा मंगावूं रमवा आवो तो जाय रातडी॥६॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तमने जोतमां ठरे आखडी॥७॥
आज मारे साधुजननो संगरे राणा। मारा भाग्ये मळ्यो॥ध्रु०॥ साधुजननो संग जो करीये पियाजी चडे चोगणो रंग रे॥१॥ सीकुटीजननो संग न करीये पियाजी पाडे भजनमां भंगरे॥२॥ अडसट तीर्थ संतोनें चरणें पियाजी कोटी काशी ने कोटी गंगरे॥३॥ निंदा करसे ते तो नर्क कुंडमां जासे पियाजी थशे आंधळा अपंगरे॥४॥ मीरा कहे गिरिधरना गुन गावे पियाजी संतोनी रजमां शीर संगरे॥५॥
सांवरा म्हारी प्रीत निभाज्यो जी॥ थे छो म्हारा गुण रा सागर, औगण म्हारूं मति जाज्यो जी। लोकन धीजै (म्हारो) मन न पतीजै, मुखडारा सबद सुणाज्यो जी॥ मैं तो दासी जनम जनम की, म्हारे आंगणा रमता आज्यो जी। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बेड़ो पार लगाज्यो जी॥
होरी खेलनकू आई राधा प्यारी हाथ लिये पिचकरी॥ध्रु०॥ कितना बरसे कुंवर कन्हैया कितना बरस राधे प्यारी॥ हाथ०॥१॥ सात बरसके कुंवर कन्हैया बारा बरसकी राधे प्यारी॥ हाथ०॥२॥ अंगली पकड मेरो पोचो पकड्यो बैयां पकड झक झारी॥ हाथ०॥३॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तुम जीते हम हारी॥ हाथ०॥४॥
मेरो मनमोहना, आयो नहीं सखी री॥ कैं कहुं काज किया संतन का, कै कहुं गैल भुलावना॥ कहा करूं कित जाऊं मेरी सजनी, लाग्यो है बिरह सतावना॥ मीरा दासी दरसण प्यासी, हरिचरणां चित लावना॥
नाव किनारे लगाव प्रभुजी नाव किना०॥ध्रु०॥ नदीया घहेरी नाव पुरानी। डुबत जहाज तराव॥१॥ ग्यान ध्यानकी सांगड बांधी। दवरे दवरे आव॥२॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। पकरो उनके पाव॥३॥
हरि तुम हरो जन की भीर। द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर॥ भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर। हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर॥ बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर। दासि 'मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर॥
होरी खेलत हैं गिरधारी। मुरली चंग बजत डफ न्यारो। संग जुबती ब्रजनारी।। चंदन केसर छिड़कत मोहन अपने हाथ बिहारी। भरि भरि मूठ गुलाल लाल संग स्यामा प्राण पियारी। गावत चार धमार राग तहं दै दै कल करतारी।। फाग जु खेलत रसिक सांवरो बाढ्यौ रस ब्रज भारी। मीरा कूं प्रभु गिरधर मिलिया मोहनलाल बिहारी।।
सखी, मेरी नींद नसानी हो। पिवको पंथ निहारत सिगरी रैण बिहानी हो॥ सखिअन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी हो। बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय ऐसी ठानी हो॥ अंग अंग व्याकुल भई मुख पिय पिय बानी हो। अंतरबेदन बिरह की कोई पीर न जानी हो॥ ज्यूं चातक घनकूं रटै, मछली जिमि पानी हो। मीरा व्याकुल बिरहणी सुद बुध बिसरानी हो॥
राम मिलण के काज सखी, मेरे आरति उर में जागी री। तड़पत-तड़पत कल न परत है, बिरहबाण उर लागी री। निसदिन पंथ निहारूँ पिवको, पलक न पल भर लागी री। पीव-पीव मैं रटूँ रात-दिन, दूजी सुध-बुध भागी री। बिरह भुजंग मेरो डस्यो कलेजो, लहर हलाहल जागी री। मेरी आरति मेटि गोसाईं, आय मिलौ मोहि सागी री। मीरा ब्याकुल अति उकलाणी, पिया की उमंग अति लागी री।