पपइया रे पिव की वाणि न बोल
पपइया रे पिव की वाणि न बोल
पपइया रे, पिव की वाणि न बोल
पपइया रे, पिव की वाणि न बोल।
सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़॥
चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण॥
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज।
चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज॥
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय।
जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय॥
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय॥
पपइया रे, पिव की वाणि न बोल।
सुणि पावेली बिरहुणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़॥
चोंच कटाऊं पपइया रे, ऊपर कालोर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै स कूण॥
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेंला आज।
चोंच मंढ़ाऊं थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज॥
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे, कागा तू ले जाय।
जाइ प्रीतम जासूं यूं कहै रे, थांरि बिरहस धान न खाय॥
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम विन रह्यौ न जाय॥
पिव की=प्रियतम की, पावेली=पावेगी, कालर=काला, मेला=मिल जाता, धान=धान्य,अन्न)
प्रियतम की वाणी को सुनाने वाले पपीहे से मन की व्यथा छलक पड़ती है। उसकी कूक विरहिणी के हृदय को चीर देती है, जैसे नमक घाव पर लग जाए। यह तड़प उस आत्मा की है, जो प्रभु के बिना हर पल बेचैन है। पपीहे को कोसना, उसकी चोंच काटने की बात, वह दुख है, जो प्रियतम की अनुपस्थिति में मन को सताता है।
पर अगर पपीहा प्रभु का संदेश लाए, तो वह सिरताज बन जाता है, उसकी चोंच सोने से मढ़ दी जाए। यह प्रेम की वह गहराई है, जो प्रभु के एक संदेश में सुख खोजती है। काग को पत्र देकर प्रियतम तक पुकार भेजना, कि बिना उनके अन्न भी नहीं खाया जाता, वह निश्छल भक्ति है, जो हर सांस को प्रभु के लिए अर्पित करती है।
मीरा की व्याकुलता, जो पिव-पिव पुकारती है, वह प्यास है, जो केवल अंतरजामी के मिलन से बुझती है। मन को उनकी शरण में समर्पित करो, क्योंकि उनकी कृपा ही वह ठिकाना है, जो विरह की आग को शांत कर आत्मा को सदा के सुख से जोड़ता है।
पर अगर पपीहा प्रभु का संदेश लाए, तो वह सिरताज बन जाता है, उसकी चोंच सोने से मढ़ दी जाए। यह प्रेम की वह गहराई है, जो प्रभु के एक संदेश में सुख खोजती है। काग को पत्र देकर प्रियतम तक पुकार भेजना, कि बिना उनके अन्न भी नहीं खाया जाता, वह निश्छल भक्ति है, जो हर सांस को प्रभु के लिए अर्पित करती है।
मीरा की व्याकुलता, जो पिव-पिव पुकारती है, वह प्यास है, जो केवल अंतरजामी के मिलन से बुझती है। मन को उनकी शरण में समर्पित करो, क्योंकि उनकी कृपा ही वह ठिकाना है, जो विरह की आग को शांत कर आत्मा को सदा के सुख से जोड़ता है।
कोईकी भोरी वोलो मइंडो मेरो लूंटे॥ध्रु०॥
छोड कनैया ओढणी हमारी। माट महिकी काना मेरी फुटे॥ को०॥१॥
छोड कनैया मैयां हमारी। लड मानूकी काना मेरी तूटे॥ को०॥२॥
छोडदे कनैया चीर हमारो। कोर जरीकी काना मेरी छुटे॥ को०॥३॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर। लागी लगन काना मेरी नव छूटे॥ को०॥४॥
कोई देखोरे मैया। शामसुंदर मुरलीवाला॥ध्रु०॥
जमुनाके तीर धेनु चरावत। दधी घट चोर चुरैया॥१॥
ब्रिंदाजीबनके कुंजगलीनमों। हमकू देत झुकैया॥२॥
ईत गोकुल उत मथुरा नगरी। पकरत मोरी भय्या॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बजैया॥४॥
कौन भरे जल जमुना। सखीको०॥ध्रु०॥
बन्सी बजावे मोहे लीनी। हरीसंग चली मन मोहना॥१॥
शाम हटेले बडे कवटाले। हर लाई सब ग्वालना॥२॥
कहे मीरा तुम रूप निहारो। तीन लोक प्रतिपालना॥३॥
करूं मैं बनमें गई घर होती। तो शामकू मनाई लेती॥ध्रु०॥
गोरी गोरी बईमया हरी हरी चुडियां। झाला देके बुलालेती॥१॥
अपने शाम संग चौपट रमती। पासा डालके जीता लेती॥२॥
बडी बडी अखिया झीणा झीणा सुरमा। जोतसे जोत मिला लेती॥३॥
कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल लपटा लेती॥४॥