मन रे परसि हरिके चरण लिरिक्स

मन रे परसि हरिके चरण लिरिक्स

मन रे परसि हरिके चरण
मन रे परसि हरिके चरण।

सुभग सीतल कंवल कोमल, त्रिविध ज्वाला हरण।
जिण चरण प्रहलाद परसे, इंद्र पदवी धरण।।

जिण चरण ध्रुव अटल कीन्हे, राख अपनी सरण।
जिण चरण ब्रह्मांड भेट्यो, नखसिखां सिर धरण।।

जिण चरण प्रभु परसि लीने, तेरी गोतम घरण।
जिण चरण कालीनाग नाथ्यो, गोप लीला-करण।।

जिण चरण गोबरधन धारयो, गर्व मधवा हरण।
दासि मीरा लाल गिरधर, अगम तारण तरण।।

(परसि=स्पर्श कर, छू, हरि=श्रीकृष्ण, सुभग=सुन्दर,
जगत ज्वाला=संसार के विविध ताप, दैहिक, दैविक
और भौतिक ताप; दैहिक दुःखों के दो भेद हैं:
शारीरिक रोग,जैसे-खाँसी,ज्वर आदि; मानसिक रोग,
जैसे-क्रोध, लोभ आदि। देवताओं अथवा प्राकृतिक
शक्तियों के द्वारा दिये जाने वाले दैविक दुःख
कहलाते हैं, जैसे, आँधी, ओले, भूचाल आदि। स्थावर
या जंगम प्राणियों द्रारा प्रदत्त दुःख भौतिक दुःख
कहलातै हैं, जैसे-सर्प-दंश,हिंस्र पशुओं के आक्रमण
आदि; त्रिविध=तीन तरह की, परस्याँ=स्पर्श करके, नखसिखा=नखशिख तक,पूर्णरूप से, सिरी=श्री,शोभा, कालियाँ=काली नाग। नाथ्या=वश में किया, मधवा= इन्द्र, तारण=उतारने में, तरण=तरणि,नौका)

कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी, तोरि बनसरी लागी मोकों प्यारीं॥ध्रु०॥
दहीं दुध बेचने जाती जमुना। कानानें घागरी फोरी॥ काना०॥१॥
सिरपर घट घटपर झारी। उसकूं उतार मुरारी॥ काना०॥२॥
सास बुरीरे ननंद हटेली। देवर देवे मोको गारी॥ काना०॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल बलहारी॥ काना०॥४॥

कान्हो काहेकूं मारो मोकूं कांकरी, कांकरी कांकरी कांकरीरे॥ध्रु०॥
गायो भेसो तेरे अवि होई है। आगे रही घर बाकरीरे॥ कानो॥१॥
पाट पितांबर काना अबही पेहरत है। आगे न रही कारी घाबरीरे॥ का०॥२॥
मेडी मेहेलात तेरे अबी होई है। आगे न रही वर छापरीरे॥ का०॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। शरणे राखो तो करूं चाकरीरे॥ कान०॥४॥

कायकूं देह धरी भजन बिन कोयकु देह गर्भवासकी त्रास देखाई धरी वाकी पीठ बुरी॥ भ०॥१॥
कोल बचन करी बाहेर आयो अब तूम भुल परि॥ भ०॥२॥
नोबत नगारा बाजे। बघत बघाई कुंटूंब सब देख ठरी॥ भ०॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। जननी भार मरी॥ भ०॥४॥
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