(परसि=स्पर्श कर, छू, हरि=श्रीकृष्ण, सुभग=सुन्दर, जगत ज्वाला=संसार के विविध ताप, दैहिक, दैविक और भौतिक ताप; दैहिक दुःखों के दो भेद हैं: शारीरिक रोग,जैसे-खाँसी,ज्वर आदि; मानसिक रोग, जैसे-क्रोध, लोभ आदि। देवताओं अथवा प्राकृतिक शक्तियों के द्वारा दिये जाने वाले दैविक दुःख कहलाते हैं, जैसे, आँधी, ओले, भूचाल आदि। स्थावर या जंगम प्राणियों द्रारा प्रदत्त दुःख भौतिक दुःख कहलातै हैं, जैसे-सर्प-दंश,हिंस्र पशुओं के आक्रमण आदि; त्रिविध=तीन तरह की, परस्याँ=स्पर्श करके, नखसिखा=नखशिख तक,पूर्णरूप से, सिरी=श्री,शोभा, कालियाँ=काली नाग। नाथ्या=वश में किया, मधवा= इन्द्र, तारण=उतारने में, तरण=तरणि,नौका)
कान्हो काहेकूं मारो मोकूं कांकरी, कांकरी कांकरी कांकरीरे॥ध्रु०॥ गायो भेसो तेरे अवि होई है। आगे रही घर बाकरीरे॥ कानो॥१॥ पाट पितांबर काना अबही पेहरत है। आगे न रही कारी घाबरीरे॥ का०॥२॥ मेडी मेहेलात तेरे अबी होई है। आगे न रही वर छापरीरे॥ का०॥३॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। शरणे राखो तो करूं चाकरीरे॥ कान०॥४॥