भज मन शंकर भोलानाथ भजन

भज मन शंकर भोलानाथ भजन

भज मन शंकर भोलानाथ
भज मन शंकर भोलानाथ भज मन॥टेक॥
अंग विभूत सबही शोभा। ऊपर फुलनकी बास॥१॥
एकहि लोटाभर जल चावल। चाहत ऊपर बेलकी पात॥२॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर। पूजा करले समजे आपहि आप॥३॥
 
शंकर भोलानाथ की भक्ति वह सादगी भरा प्रेम है, जो मन को उनके चरणों में रमा देता है। अंग पर भभूत और फूलों की सुगंध, उनका वह अलौकिक रूप है, जो सादगी में भी सृष्टि को मोह लेता है। यह भक्ति वह दीप है, जो हृदय को उनके प्रकाश से भर देता है।

एक लोटा जल, चावल, और बेलपत्र—ये छोटी-छोटी भेंटें ही भोले को प्रिय हैं। उनकी पूजा में कोई भव्यता नहीं, केवल शुद्ध मन की चाह है। यह प्रेम वह फूल है, जो बिना शर्त प्रभु को अर्पित होता है, और मन को शांति देता है।

मीरा का गिरधर को प्रभु मानकर कहना, कि स्वयं को समझकर पूजा करो, वह गहरी सीख है। शंकर की भक्ति आत्म-जागृति का मार्ग है, जहाँ भक्त स्वयं को प्रभु में विलीन कर लेता है। यह भक्ति वह नदी है, जो भोलानाथ के चरणों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है, और जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देती है।
 
गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा॥
चरण कंवल को हंस हंस देखूं, राखूं नैणां नेरा।
निरखणकूं मोहि चाव घणेरो, कब देखूं मुख तेरा॥
व्याकुल प्राण धरत नहिं धीरज, मिल तूं मीत सबेरा।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ताप तपन बहुतेरा॥

घर आंगण न सुहावै, पिया बिन मोहि न भावै॥
दीपक जोय कहा करूं सजनी, पिय परदेस रहावै।
सूनी सेज जहर ज्यूं लागे, सिसक-सिसक जिय जावै॥
नैण निंदरा नहीं आवै॥
कदकी उभी मैं मग जोऊं, निस-दिन बिरह सतावै।
कहा कहूं कछु कहत न आवै, हिवड़ो अति उकलावै॥
हरि कब दरस दिखावै॥
ऐसो है कोई परम सनेही, तुरत सनेसो लावै।
वा बिरियां कद होसी मुझको, हरि हंस कंठ लगावै॥
मीरा मिलि होरी गावै॥

घर आवो जी सजन मिठ बोला।
तेरे खातर सब कुछ छोड्या, काजर, तेल तमोला॥
जो नहिं आवै रैन बिहावै, छिन माशा छिन तोला।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, कर धर रही कपोला॥
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