भजु मन चरन कँवल अविनासी

भजु मन चरन कँवल अविनासी

भजु मन चरन कँवल अविनासी
भजु मन चरन कँवल अविनासी।
जेताइ दीसे धरण-गगन-बिच, तेताई सब उठि जासी।
कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हे, कहा लिये करवत कासी।
इस देही का गरब न करना, माटी मैं मिल जासी।
यो संसार चहर की बाजी, साँझ पडयाँ उठ जासी।
कहा भयो है भगवा पहरयाँ, घर तज भए सन्यासी।
जोगी होय जुगति नहिं जाणी, उलटि जनम फिर जासी।
अरज करूँ अबला कर जोरें, स्याम तुम्हारी दासी।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, काटो जम की फाँसी।

(अवणासी=अबिनाशी, जेताई=जितना, दीसाँ=दिखाई देता है, तेताई=उतना ही,सब का सब,उठ जासी=नष्ट हो जायेगा, चहर रो बाजी= चिड़ियों का खेल है, जुगत=युक्ति, गाँसी=बन्धन)
 
मन को अविनाशी प्रभु के चरण-कमलों में भजना, वह भक्ति है, जो आत्मा को सांसारिक बंधनों से मुक्त करती है। यह संसार, धरती और आकाश के बीच का सब कुछ, क्षणभंगुर है, जो एक दिन मिट जाएगा। तीर्थ, व्रत, या काशी की कठिन यात्राएँ तब तक व्यर्थ हैं, जब तक मन प्रभु में नहीं रमता। यह देह माटी में मिल जाएगी, फिर गर्व किस बात का? यह सत्य वह दर्पण है, जो आत्मा को जागृत करता है।

संसार चिड़ियों की बाजी है, जो साँझ ढलते उड़ जाती है। भगवा पहनकर, घर त्यागकर सन्यासी बनना भी अधूरा है, यदि योग की युक्ति न जानी। ऐसा जीवन फिर जन्म-चक्र में उलझ जाता है। मीरा की यह अर्ज, कि हे श्याम, तुम्हारी दासी हूँ, मुझे जम की फाँसी से मुक्त करो, वह निश्छल समर्पण है, जो प्रभु के चरणों में सब कुछ अर्पित करता है।

यह भक्ति वह नदी है, जो गिरधर के चरणों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है। मीरा का प्रभु से बंधन काटने का आग्रह, वह पुकार है, जो जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देती है, और मृत्यु के भय को प्रेम में बदल देती है।
 
घर आंगण न सुहावै, पिया बिन मोहि न भावै॥
दीपक जोय कहा करूं सजनी, पिय परदेस रहावै।
सूनी सेज जहर ज्यूं लागे, सिसक-सिसक जिय जावै॥
नैण निंदरा नहीं आवै॥
कदकी उभी मैं मग जोऊं, निस-दिन बिरह सतावै।
कहा कहूं कछु कहत न आवै, हिवड़ो अति उकलावै॥
हरि कब दरस दिखावै॥
ऐसो है कोई परम सनेही, तुरत सनेसो लावै।
वा बिरियां कद होसी मुझको, हरि हंस कंठ लगावै॥
मीरा मिलि होरी गावै॥

घर आवो जी सजन मिठ बोला।
तेरे खातर सब कुछ छोड्या, काजर, तेल तमोला॥
जो नहिं आवै रैन बिहावै, छिन माशा छिन तोला।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, कर धर रही कपोला॥

चरन रज महिमा मैं जानी। याहि चरनसे गंगा प्रगटी।
भगिरथ कुल तारी॥ चरण०॥१॥
याहि चरनसे बिप्र सुदामा। हरि कंचन धाम दिन्ही॥ च०॥२॥
याहि चरनसे अहिल्या उधारी। गौतम घरकी पट्टरानी॥ च०॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल से लटपटानी॥ चरण०॥४॥ 
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