मेरो बेड़ो लगाज्यो पार

मेरो बेड़ो लगाज्यो पार

मेरो बेड़ो लगाज्यो पार, प्रभु जी मैं अरज करूँ छै।।टेक।।
या भव में मै बहु दुख पायो, संसा सोग निवार।
अष्ट करम की तलब लगी है, दूर करो दुख भार।
यो संसार सब बह्यो जात है, लख चौरासी री धार।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, आवागमन निवार।।

(बेड़ो=नाव, भव=संसार, संसा=संशय, सोग=शोक, निवार=दूर करो, अष्ट करम=आठ बंधन आठ पाश, तलब=उत्कट इच्छा, लख चौरासी री धार=चौरासी लाख योनियों की धारा में, आवागमन=जन्म मृत्यु का बंधन)

 
यह जीवन एक प्रवाहमान नदी की भाँति है, जिसमें जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में उलझता रहता है। संसार का यह प्रवाह जब तक नियंत्रित नहीं होता, तब तक आत्मा को स्थिरता नहीं मिलती। यह दुख और संशय, मोह और शोक का बंधन है, जिसे पार करने के लिए ईश्वर का आश्रय ही एकमात्र सहारा है।

भक्त की पुकार गहरी है—अष्ट करम के बंधनों ने जीव को बांध रखा है, और इनसे मुक्त होने की उत्कट इच्छा हृदय में उठती है। इस सांसारिक धारा में बहते-बहते, अंततः एक ही सत्य स्पष्ट होता है—मुक्ति केवल प्रभु की कृपा से संभव है। यह यात्रा जब उस दिव्य चरणों की ओर बढ़ती है, तब ही जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त होता है।

समर्पण की गहराई में ही मोक्ष का रहस्य छिपा है। जब आत्मा पूर्ण निष्ठा से प्रभु के शरणागत होती है, तब भवसागर पार लग जाता है। यही वह विश्वास है, जो समस्त दुखों को समाप्त कर देता है, और यही वह नाम है, जो जीवन को उसके सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुंचा देता है।  

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