माई म्हारी हरिहूँ न बूझयाँ बात

माई म्हारी हरिहूँ न बूझयाँ बात

माई म्हारी हरिहूँ न बूझयाँ बात
माई म्हारी हरिहूँ न बूझयाँ बात।।टेक।।
पड माँसू प्राण पापी, निकसि क्यूं णा जात।
पटा णाँ खोल्या मुखाँ णा बोल्या, सांझ भयाँ प्रभात।
अबोलणां जुग बीतण लागा कायाँरी कुसलात।
सावण आवण हरि आवण री, सुण्या म्हाणे बात।
घोर रैणां बीजु चमकां बार निणताँ प्रभात।
मीराँ दासी स्याम राती, ललक जीवणाँ जात।।

(न बूझयाँ बात=बात न पूछना, पड मांसूँ= शरीर में से, पटा=पट,घूँघट, अबोलणाँ=बिना बोले ही, कायाँरी=कैसी, कुसलात=कुशल, रैणां= रैन,रात, बीजु=बिजली, बार निणताँ=घड़ी गिनते-गिनते)

माई म्हारी हरि जी ना बूझी बात भजन ।। मीरा बाई का भजन ।। #sadhnapravachan

मन की गहराइयों में छिपी व्यथा यह है कि ईश्वर के साथ संवाद क्यों नहीं बन पाता। आत्मा पापों के बोझ तले दबी है, मांस-मज्जा में कैद, फिर भी मुक्ति का मार्ग नहीं सूझता। यह चेतना का आलम है, जहां न मन खुलता है, न वाणी बोलती है। सांझ और प्रभात का चक्र चलता रहता है, पर आत्मा मौन, जैसे युगों का समय ठहर गया हो। शरीर की क्षणभंगुरता सामने है, फिर भी कल्याण का पथ दूर।

हरि का आगमन सावन की तरह शुभ है, उनकी बातें सुन मन में आशा जागती है। जैसे घनी रात में बिजली चमकती है, वैसे ही प्रभु का नाम अंधेरे में प्रकाश लाता है। यह जीव उनकी ओर लालायित है, प्रेम में डूबा, हर पल उनके रंग में रंगने को आतुर। भक्ति का यह मार्ग प्रेम और समर्पण का है, जहां आत्मा ईश्वर के साथ एकाकार होने को बेकरार है।
 
बन जाऊं चरणकी दासी रे, दासी मैं भई उदासी॥ध्रु०॥
और देव कोई न जाणूं। हरिबिन भई उदासी॥१॥
नहीं न्हावूं गंगा नहीं न्हावूं जमुना। नहीं न्हावूं प्रयाग कासी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमलकी प्यासी॥३॥

बन्सी तूं कवन गुमान भरी॥ध्रु०॥
आपने तनपर छेदपरंये बालाते बिछरी॥१॥
जात पात हूं तोरी मय जानूं तूं बनकी लकरी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर राधासे झगरी बन्सी॥३॥

बरजी मैं काहूकी नाहिं रहूं।
सुणो री सखी तुम चेतन होयकै मनकी बात कहूं॥
साध संगति कर हरि सुख लेऊं जगसूं दूर रहूं।
तन धन मेरो सबही जावो भल मेरो सीस लहूं॥
मन मेरो लागो सुमरण सेती सबका मैं बोल सहूं।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुर सरण गहूं॥

बागनमों नंदलाल चलोरी॥ अहालिरी॥ध्रु॥
चंपा चमेली दवना मरवा। झूक आई टमडाल॥च०॥१॥
बागमों जाये दरसन पाये। बिच ठाडे मदन गोपाल॥च०॥२॥
मीराके प्रभू गिरिधर नागर। वांके नयन विसाल॥च०॥३॥

भजु मन चरन कँवल अविनासी।
जेताइ दीसे धरण-गगन-बिच, तेताई सब उठि जासी।
कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हे, कहा लिये करवत कासी।
इस देही का गरब न करना, माटी मैं मिल जासी।
यो संसार चहर की बाजी, साँझ पडयाँ उठ जासी।
कहा भयो है भगवा पहरयाँ, घर तज भए सन्यासी।
जोगी होय जुगति नहिं जाणी, उलटि जनम फिर जासी।
अरज करूँ अबला कर जोरें, स्याम तुम्हारी दासी।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, काटो जम की फाँसी।
 
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