माई म्हां गोविन्द, गुण गास्यां माई म्हां गोविन्द, गुण गास्यां।।टेक।। चरणम्रति रो नेम सकारे, नित उठ दरसण आस्यां। हरि मन्दिर मां निरत करावां घूँघरयां घमकास्यां। स्याम नाम रो झांझ चलास्यां, भोसागर तर जास्यां। यो संसार बीड़रो कांटो, गेल प्रीतम अटकास्यां। मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, गुन गावां सुख पास्यां।। (गास्याँ=गाऊंगी, चरणम्रति=चरणामृता, सकारे= प्रातःकाल, निरत=नृत्य, झांझ=एक प्रकार का बाजा, भोसागर=भवसागर,संसार रूपी सागर, बीड़रो=बेरी का, गेल=गया, प्रीतम=प्रियतम)
माई मैनें गोविंद लीन्हो मोल॥ध्रु०॥ कोई कहे हलका कोई कहे भारी। लियो है तराजू तोल॥ मा०॥१॥ कोई कहे ससता कोई कहे महेंगा। कोई कहे अनमोल॥ मा०॥२॥ ब्रिंदाबनके जो कुंजगलीनमों। लायों है बजाकै ढोल॥ मा०॥३॥ मीराके प्रभु गिरिधर नागर। पुरब जनमके बोल॥ मा०॥४॥
मेरो मन राम-हि-राम रटै। राम-नाम जप लीजै प्राणी! कोटिक पाप कटै। जनम-जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत फटै। कनक-कटोरै इमरत भरियो, नामहि लेत नटै। मीरा के प्रभु हरि अविनासी तन-मन ताहि पटै।
गली तो चारों बंद हुई हैं, मैं हरिसे मिलूँ कैसे जाय।। ऊंची-नीची राह रपटली, पांव नहीं ठहराय। सोच सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाय।। ऊंचा नीचां महल पिया का म्हांसूँ चढ्यो न जाय। पिया दूर पथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय।। कोस कोस पर पहरा बैठया, पैग पैग बटमार। हे बिधना कैसी रच दीनी दूर बसायो लाय।। मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु दई बताय। जुगन-जुगन से बिछड़ी मीरा घर में लीनी लाय।।