भीड़ छाँडि बीर वैद मेरे भजन

भीड़ छाँडि बीर वैद मेरे भजन

भीड़ छाँडि बीर वैद मेरे
भीड़ छाँडि बीर वैद मेरे पीर न्यारी है।।टेक।।
करक कलेजे मारी ओखद न लागे थाँरी।
तुम घरि जावो बैद मेरे पीर भारी है।
विरहित बिरह बाढ्यो, ताते दुख भयो गाढ़ो।
बिरह के बान ले बिरहनि मारी है।
चित हो पिया की प्यारी नेकहूँ न होवे न्यारी।
मीराँ तो आजार बाँध बैद गिरधारी है।। 

(पीर=पीड़ा, करक=कसक,चोट, ओखद=औषधि, बिरहति=प्रियतम का विरह, चित=याद,आजार=दुःखी)
 
प्रभु के विरह की पीड़ा वह दुख है, जो कोई सांसारिक वैद्य ठीक नहीं कर सकता। यह कसक हृदय में ऐसी चोट देती है, जो किसी औषधि से शांत नहीं होती। मीरा की पुकार, कि हे वैद, मेरी पीर अनोखी है, वह उस आत्मा की व्यथा है, जो प्रभु के बिना अधूरी है, जैसे चाँदनी रात चाँद के बिना फीकी लगती है।

विरह की आग मन में ऐसी भड़कती है, कि दुख गहरा और असह्य हो जाता है। यह बिरह के बाण उस विरहिणी को छलनी कर देते हैं, जिसका मन प्रियतम की याद में डूबा है। मीरा का यह कहना, कि उसका चित्त पिया से कभी अलग नहीं होता, वह प्रेम की गहराई है, जो हर पल प्रभु को ही देखता है।

गिरधर ही वह एकमात्र वैद हैं, जो इस आजार को बाँध सकते हैं। यह भक्ति वह नदी है, जो प्रभु के चरणों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है। मीरा का यह समर्पण, कि केवल गिरधारी ही उसकी पीड़ा का इलाज हैं, जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देता है, और हर दुख को प्रेम में बदल देता है।
 
तनक हरि चितवौ जी मोरी ओर।
हम चितवत तुम चितवत नाहीं
मन के बड़े कठोर।
मेरे आसा चितनि तुम्हरी
और न दूजी ठौर।
तुमसे हमकूँ एक हो जी
हम-सी लाख करोर।।
कब की ठाड़ी अरज करत हूँ
अरज करत भै भोर।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी
देस्यूँ प्राण अकोर।।

छोड़ मत जाज्यो जी महाराज॥
मैं अबला बल नायं गुसाईं, तुमही मेरे सिरताज।
मैं गुणहीन गुण नांय गुसाईं, तुम समरथ महाराज॥
थांरी होयके किणरे जाऊं, तुमही हिबडा रो साज।
मीरा के प्रभु और न कोई राखो अबके लाज॥

आवो सहेल्या रली करां हे, पर घर गावण निवारि।
झूठा माणिक मोतिया री, झूठी जगमग जोति।
झूठा सब आभूषण री, सांचि पियाजी री पोति।
झूठा पाट पटंबरारे, झूठा दिखणी चीर।
सांची पियाजी री गूदडी, जामे निरमल रहे सरीर।
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