गिरधर रूसणुं जी कौन गुनाह मीरा बाई पदावली

गिरधर रूसणुं जी कौन गुनाह मीरा बाई पदावली

गिरधर रूसणुं जी कौन गुनाह
गिरधर रूसणुं जी कौन गुनाह।।टेक।।
कछु इक ओगुण काढ़ो म्हाँ छै, म्हैं भी कानाँ सुणा।
मैं दासी थारी जनम जनम की, थे साहिब सुगणाँ।
कांई बात सूं करवौ रूसणऊं, क्यां दुख पावौ छो मना।
किरपा करि मोहि दरसण दीज्यो, बीते दिवस घणाँ।
मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, थाँरो हो नाँव गणाँ।।

(गुनाह=अपराध, ओगुण=दोष, म्हैं भी कानाँ सुणाँ= मैं भी अपने कानों से सुनुं, सुगणाँ=गुण वाले, घणाँ= ज्यादा, नाँव=नाम, गणां=रटाँ, रीसाणा=अप्रसन्न होना, कौन गुणाँ=किस कारण, काढ़ो=निकालो, थारोई= तुम्हारा, भणां=जपा करती हूँ)

भक्ति की गहराई में जब साधक ईश्वर से संवाद करता है, तब वह केवल निवेदन नहीं करता, बल्कि अपने अंतर्मन की व्यथा को उनके चरणों में अर्पित करता है। मीराँ की इस पुकार में प्रेम की वो गहनतम अनुभूति है, जहाँ ईश्वर से प्रत्यक्ष प्रश्न किया जाता है—यदि कोई भूल हुई हो, तो उसे स्पष्ट करें, क्योंकि यह प्रेम तो अनंत और निःस्वार्थ है।

श्रीकृष्ण केवल एक ईश्वरीय शक्ति नहीं, बल्कि उस प्रेम और करुणा के स्रोत हैं, जो प्रत्येक भक्त की पुकार को सुनते हैं। जब भक्ति अपने उच्चतम स्तर पर पहुँचती है, तब उसमें कोई औपचारिकता नहीं रहती—सिर्फ हृदय की वह सरलता, जहाँ प्रेम बिना किसी बाधा के प्रवाहित होता है।

प्रभु की कृपा ही उस सच्चे मिलन को संभव बनाती है। यह केवल बाहरी दर्शन की अभिलाषा नहीं, बल्कि आत्मा की उस गहन आकांक्षा है, जहाँ भक्त की प्रत्येक सांस उनके नाम का स्मरण करती है। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं। जब यह अनुराग अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—केवल प्रभु के चरणों में पूर्ण समर्पण।
 
माई मैनें गोविंद लीन्हो मोल॥ध्रु०॥
कोई कहे हलका कोई कहे भारी। लियो है तराजू तोल॥ मा०॥१॥
कोई कहे ससता कोई कहे महेंगा। कोई कहे अनमोल॥ मा०॥२॥
ब्रिंदाबनके जो कुंजगलीनमों। लायों है बजाकै ढोल॥ मा०॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। पुरब जनमके बोल॥ मा०॥४॥

मेरो मन राम-हि-राम रटै।
राम-नाम जप लीजै प्राणी! कोटिक पाप कटै।
जनम-जनम के खत जु पुराने, नामहि‍ लेत फटै।
कनक-कटोरै इमरत भरियो, नामहि लेत नटै।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी तन-मन ताहि पटै।
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