गिरधारी शरणां थारी आयाँ मीरा बाई पदावली

गिरधारी शरणां थारी आयाँ मीरा बाई पदावली

गिरधारी शरणां थारी आयाँ
गिरधारी शरणां थारी आयाँ, राख्याँ किर्पानिधान।।टेक।।
अजामील अपराधी तार्यां तार्या नीच सदाण।
डूबतां गजराज राख्याँ गणिका चढ़्या बिमाण।
अवर अधम बहुत थें तार्या, भाख्याँ सणत सुजाण।
भीलण कुबजा तार्यां गिरधर, जाण्याँ सकल जहाण।
बिरद बखाणाँ गणतां जा जाणा, थाकाँ वेद पुराण।
मीराँ प्रभु री शरण रावली, बिणता दीस्यो काण।।

(किर्पानिधान=कृपासागर, अजामिल=एक व्यक्ति का नाम, सदाण=सदना,एक व्यक्ति का नाम, चढ़ा बिमाण=विमान पर चढ़ाकर, अवर अधम=और दूसरे पापी, सणत=सन्त, भीलण कुवजा=कुब्जा भीलिनी, जहाण=जहान,संसार, विरद=यश, बखाणाँ=बखान करना, विणता=विनती, काण=कान)

श्रीकृष्ण की कृपा अनंत है—उनकी शरण में जो आता है, वह चाहे कोई भी हो, उसका उद्धार अवश्य होता है। उनकी दिव्य करुणा अजामिल जैसे अपराधियों को भी तार देती है, गजराज को डूबने से बचा लेती है, और गणिका को विमानों में स्थान देकर सम्मानित करती है। यह केवल एक बाहरी दया नहीं, बल्कि उस गहनतम ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति है, जो हर प्राणी को उसके वास्तविक स्वरूप में वापस लाने की क्षमता रखती है।

शास्त्रों में बताया गया है कि प्रभु ने सदाण, भीलनी कुब्जा और असंख्य भक्तों को अपनी कृपा से तार दिया। यह न केवल उनकी लीला का प्रमाण है, बल्कि यह दर्शाता है कि जब कोई सच्चे भाव से उनकी शरण में आता है, तब उसकी समस्त बाधाएँ समाप्त हो जाती हैं। वे केवल राजा या ऋषियों के नहीं, बल्कि प्रत्येक भक्त के रक्षक और उद्धारक हैं।

मीराँ की भक्ति इसी शरणागत भाव को पूर्ण रूप से व्यक्त करती है। जब यह समर्पण अपनी चरम अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—केवल ईश्वर की कृपा में पूर्ण रूप से विलीन हो जाने की भावना। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस अनुभूति को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों में अनवरत समर्पण।

बन्सी तूं कवन गुमान भरी॥ध्रु०॥
आपने तनपर छेदपरंये बालाते बिछरी॥१॥
जात पात हूं तोरी मय जानूं तूं बनकी लकरी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर राधासे झगरी बन्सी॥३॥

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